मन की गति
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- 1 August, 2020
मन की गति
कुछ भी कहें मन के पद्मव्यूह में रास्ता तलाशते हुए
परेशान रहता है यह संसार
गंभीर सागर सा
अंदर ही अंदर मचाता रहता है शोर
पर बाहर की दुनिया तक
नहीं पहुँच पाता इतनी आसानी से
इसीलिए तो गरजता रहता है
बरसता रहता है।
पीछे छूटा समय
पीछा छोड़े बिना चलता रहता है साथ
परिचयों के मील के पत्थर
याद दिलाते हैं सफर की परिपक्वता
का, मन के सफर में
सामना होता ही रहता है
हार के निशानों का
सड़क किनारे थकान मिटाने वाले
साये, प्यास बुझाने वाली जगहें
स्पर्श नहीं करतीं आत्मकथाओं का
मानवता में मन की तरह नहीं बहतीं।
सफर कभी नहीं लगता
विश्वसनीय घटना सा
कोशिश करने पर भी
नहीं दिलाता यकीन
आवाज़ खोकर
मूक बन जाता है वह
डाली से चक्कर खाते हुए गिरते
सूखे पत्ते की तरह छटपटाते हुए
अजीब आहटों के बीच
सब शब्दों से अनछुआ
एक विचित्र शब्द सा
कराहता है मन।
विचित्र बात है
थकान मिटाते ही अगले पल
फिर से प्रकट हो जाती है
वह किसी दूसरे रूप में।
फिर से संघर्ष…
संसार के दुखों से बेचैन मन
कोई पाबंदी भी नहीं
रहम भी नहीं।
मन है जब तक
पद्मव्यूहों में फँसकर
राह से भटका
सफर करते ही रहना है
इसी तरह।
सावधान होकर
मन के अंदर के रहस्यों को
भेदते हुए चलते रहना है!
Image: Ponderer
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Vilho Lampi
Image in Public Domain