हाशिय पर

हाशिय पर

जो भी मज़मून में नहीं बैठता
रख दिया जाता है हाशिए पर
कि जैसे हाशिए पर रखी है एक कविता
एक अकादमिक नोटबुक के पन्ने पर
हाशिए पर हैं वो लोग
जो प्रसंग से उखाड़कर तनहा कर दिए गए
हाशिए पर वो बात है
जो कहते-कहते टूट गई मेरी आवाज़
मैं जो इस दुनिया के बीच खड़ी हूँ
असल में हाशिए पर पड़ी हूँ
हाशिए पर ही है जो भी मुझे दिलचस्प लगा
हाशिए पर है जो भी मुझे होना था
हाशिए ही पर है वो जो मैं न हो पाई
मुड़े हुए कोनों ही में खुला था मेरा अस्तित्त्व
जो वो खुल गया तो बिखर गया
मेरे दिन आज भी बहते हैं मेरे मज़मून में
मेरी रातें हाशिए पर धरी हैं
ख्वाबों को मिटाती स्याही
और नींद सोई हाशिए पर
अधसोई आँखों से देखती हूँ दुनिया
जो नहीं दिखता हाशिए पर है।


Image : The kitchens, Moulin de la Galette
Image Source : WikiArt
Artist : Santiago Rusinol
Image in Public Domain