पाखंड की इमारत

पाखंड की इमारत

नंगा होकर
धूप की बरखा में नहा रहा है समय
किवाड़ें खोलकर
बोरों जैसे कपड़े उतार रहे हैं सभी
आज का यही महापर्व है

सूरज की आँखें खुलेंगी
गोपनीय कंदराओं की आँखें भी खुलेंगी
हमारे बीच झूठ की एक बाड़ खड़ी है
कँटीली झाड़ी
वह विराट कुतूहल
वह सरल विश्वास
वह चिन्मय कल्पना
वह प्रफुल्लित आत्मवंचना
रूद्र तप रहा है

माथे पर पाग बाँधे
एक बाँका सहसवार
दरवाजे पर आकर खड़ा नहीं हो सकता
और न ही फूलों का हार पहने
पालकी जैसी दुल्हन
उस समय की प्रतीक्षा करनी होगी हमें
जब देखते-देखते ढह पड़ेंगी
झूठ और पाखंड की इमारत!!