यथार्थ

यथार्थ

मैं पी रही थी चाय कुर्सी पर बैठी
और वो बग़ल में ज़मीन पर
पूरी दुनिया पसारे

मैं लिखा-पढ़ी में व्यस्त तो उसका मन

अटका हुआ था पाप-पुण्य में

अगले सातों जनम को सुखमय
सुनिश्चित कर लेने की योजना में

और बस सारा कुछ पा लेने के चिंतन-मनन में

उसी को पाने के लिए अध्यात्म की खोज
और आत्मा की सच्चाई को ढूँढ़ने में पस्त

वो बस राशन-पानी की बातें करती

कुछेक घरों की कहानियाँ सुनाती
चार पोतियों के आ जाने की चिंताओं से त्रस्त
बस एक पोता देखने का स्वप्न बखानती

बूढ़ी देह होने के बावजूद अब चुस्त-फ़ुर्तीले थी
अपने सुख के सपनों की तरह

बोलती–एलआईसी से एक दीदी
आई रहीं दुल्हिन
कहत रहीं बीमा करा लो अम्मा
मरने के बाद लाभ होगा

मैंने कहा भी उस बीमा वाली दीदी से
कि जब मर ही जाएँगे
तब ऐसे लाभ का क्या मतलब

हँस पड़ी थी मैं ख़ूब ज़ोर से
कितना भारी होता है भोला यथार्थ
लाभ तो सबको चाहिए होता है

सुखमय जीवन बिताने के लिए।


Image : Portrait of a Young Lady
Image Source : WikiArt
Artist : George Luks
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