ऋतुराज

ऋतुराज

माना, असंख्य वर्णों नादों
गंधों स्पर्शों का समन्वित
स्वर व्याप्त है तुम में
संपूर्ण सौंदर्य और ऐश्वर्य से परिपूर्ण
ऋतुराज हो तुम

पर मत भूलो
ठूठ बना बरगद का पेड़
तुम्हारे ही गौरवशाली इतिहास का
एक करुण अध्याय है
तुम्हारे ऋतुराज होने के गौरव के बीच
समय के बियावान में
अकाल मृत-सा पड़ा है
उसके मन का बसंत

इधर आओ, गौर से देखो ऋतुराज
नई सदी की इमारती हँसी के बीच
किस तरह कठुआया-सा
तुम्हारे पार्श्व में खड़ा है वह
वीतरागी बरगद

सोचो जरा
रुग्ण सौंदर्य के व्यामोह से लिपटे
इस इमारती जंगल में
अब कहाँ बास करेगी
तुम्हारी कविता कामिनी?
किस डाल पर कूकेगी कोयल
चटकेगी कलियाँ
उड़ेगी माधवी बयार के साथ
झुंड की झुंड तितलियाँ?
हाय! किस अमराई से निकलेगी
अब तुम्हारी झाँकी?

हे ऋतुराज!
कहाँ डालोगे तुम
बासंती शाम का तंबू?
किस सुहाग शय्या पर
अधर पट खोले
जुही की कली का उठाओगे
पराग झरता घूँघट?

इस बेरंग बेनूर समय में
क्या तुम देख पा रहे हो
इमारती जंगलों के घुप्प अँधेरे में
भगजोगनी की तरह भटकती
किस तरह पथरीली अंतहीन सुरंग में
एक टेर बनकर समाती जा रही है
तुम्हारी कविता कामिनी?

वह बबूल के पेड़ों की टहनियों पर
आज भी बासंती फूल बन
खिलना चाहती है ऋतुराज
पत्थर समय में हरी गंध बन
रेत खेत में समाना चाहती है
तुम्हारे संग
तुम रुग्ण सौंदर्य के व्यामोह से
कब बाहर आओगे ऋतुराज?
कब?


Image: Banyan tree (PSF)
Image Source: Wikimedia Commons
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