शहर में घर बसाना

शहर में घर बसाना

है बहुत मुश्किल
शहर में घर बसाना

यहाँ हर पहचान लगती है अपरिचित
होंठ पर मुस्कान लगती है अपरिचित
पाखियों को
मिलेगा कैसे ठिकाना

घर नहीं, बस यहाँ हैं अट्टालिकाएँ
टँगी जिनमें आय-व्यय की तालिकाएँ
हम कहें कैसे
इन्हें ही आशियाना

हवा बदबू, धुआँ, सीलन से भरी है
शोर से सहमी समय की बाँसुरी है
तिर रहा हर होंठ पर
फिल्मी तराना

नहीं रिश्तों की गरम-कनकन छुअन है
पारदर्शी नहीं कोई आचरण है
खो चुके हैं
अधर पाँखें फड़फड़ाना।


नचिकेता द्वारा भी