शुक्रिया कहना चाहता था

शुक्रिया कहना चाहता था

मैं उस रेल को छूना चाहता था
और कहना चाहता था–
शुक्रिया! शुक्रिया! प्यार!

वही तो तुम्हें लेकर आई थी
तुम सामने खड़े थे और मैं हतवाक्!

पहली बार कोई स्टेशन इतना अपना लगा
कोहरे में डूबे प्लेटफार्म पर
मेरे मन जितनी नमी थी

मैं कितना स्पंदित था कि तुम्हें छोड़कर
आसमान की तरफ़ ताकने लगा
मुझे कितनों को शुक्रिया कहना था
सब भूल गया!

रेल जा रही थी तुम्हें सौंपकर
विदा होते हुए मुझे उसका
अंतिम सिरा दिखा
वह मुझे प्यार में खिले हुए फूल
की तरह लगा!