बासी कविता

बासी कविता

इन दिनों जेबें कोरे कागज़ों से भरी रहती हैं।

पहाड़ों में गाड़ी ठेलते हुए
खाई से नीचे झाँकता हूँ
तो लगता है समंदर दिखेगा
और एक नाव हवा में बहती हुई
मेरे पास आ जाएगी
जेबों में इस दृश्य की कोई तस्वीर
या चित्र नहीं है
एक कविता हो सकती है
जिसका लिखा जाना अभी बाकी है।

मैं जेब से एक कागज़ निकालता हूँ
सड़क किनारे किसी पत्थर पर बैठकर
इस दृश्य की कविता लिखने लगता हूँ
पहली पंक्ति के लिखे जाने तक दिन बदलता है
और आख़िरी के लिखे जाने तक मौसम
कागज़ से नज़रें हटाकर ऊपर देखता हूँ
तो दृश्य बदल चुका होता है
कविता बासी हो चुकी होती है।

मैं अक्सर लिखने में देरी कर देता हूँ–
नदी के लिखे जाने तक नदी सूख चुकी होती है
सूखी नदी को लिखता हूँ तो
ख़ुद को कमर तक बाढ़ में डूबा हुआ पाता हूँ
गाँव लिखे जाने तक शहर हो जाता है
जिसमें किसी अपने के खो जाने का
डर बना रहता है

खोने के डर को लिखा तो तुम मिल गई
तुम्हें लिखूँगा तो क्या तुम खो तो नहीं जाओगी?
मैं तुम्हें कभी नहीं लिखूँगा।


Image : Mountain Stream in the Auvergne
Image Source : WikiArt
Artist : Theodore Rousseau
Image in Public Domain