बचाए रखना है तुम्हें

बचाए रखना है तुम्हें

उस दिन वहाँ
जहाँ नदी थोड़ी उदास होकर बह रही थी
जा बैठा मैं भी।

न जाने कब किस लोक से उतर
करने लगे थे नृत्य
भूत, कुछ ईमानदार मूल्यों के,
प्रेत, कुछ निडर भावनाओं के
जिन, कुछ न्यायप्रिय उसूलों के
डाकिने, कुछ सच्ची राहों की।
मेरा सिर जैसे भर गया हो।

मैंने छूआ, बस यूँ ही, छूने के लिए
घास का एक सबसे सख्त हिस्सा
कि निकल आया एक विशाल दैत्य
चीरता उदास नदी का एक हिस्सा
आँखों से जिसकी टपक रहा था रक्त
और होठों में पंडों की बहियाँ-सा
अटका था समय।

देखते ही देखते मेरा डर
एक पास ही बैठी चिड़िया के पंखों में भर
वह देखने लगा था मुझे
एक मासूम बच्चे सा।
मुझे लगा वह नहीं थी व्यंग्य की हँसी
जो वह हँस रहा था।
दाँतों में भिची कोई
क्रूर हँसी भी नहीं थी वह।

मुझे याद नहीं, कोई सवाल किया हो मैंने
पर दैत्य दे रहा था जवाब, शायद आदतन–
‘यही वह समय है, वह अवस्था
जब करनी है तुम्हें सबसे ज्यादा सुरक्षा
अपने सिर में आ बसे भूत की, प्रेत की
जिन की, डाकिनों की
और सबसे ज्यादा कविता की।’

दैत्य हूँ में जानते हैं सब।
पर पहचानते हो क्या उन्हें भी
जिनके कंकाल पर
चढ़ी होती है खाल मनुष्य की
जो कभी पड़े होते हैं पाँवों में
और कभी चढ़े होते हैं गर्दन पर।

मेरी आँखों से टपक रहा रक्त
मानता हूँ, मासूमों का है
पर चढ़ाया था उन्होंने ही
मेरी बलिवेदी पर,
रचकर मुझे खुद ही।

अघा गया हूँ मैं
पर नहीं अघाए वे आज तक,
देखो फटा जा रहा है मेरा पेट
इसीलिए तो नहीं खा पा रहा हूँ तुम्हें।
तुम्हें मालूम भी नहीं,
पहुँचाए गए हो तुम भी
मेरी बलिवेदी पर।

बचाए रखना है तुम्हें,
बचाए रखना है उनसे,
बचाए रखना है
अपने सिर के भूत को, प्रेत को
जिन को, डाकिनों को
और सबसे ज्यादा कविता को

नहीं दोहरानी है वह गलती
की थी जो मैंने कभी
बनने से पहले दैत्य।

नदी ने
न जाने कब उतार फेंकी थी उदासी
और अब वह सिर्फ बह रही थी,
बह रही थी।


Image : Portrait of a Man
Image Source : WikiArt
Artist : Paul Cezanne
Image in Public Domain

दिविक रमेश द्वारा भी