भूलने के विरुद्ध

भूलने के विरुद्ध

खोया है सभी ने कुछ न कुछ तो।
तसल्ली है या नियति?
भूलना होगा मुझे भी
पीछा करती पुकारें,
कौन पत्थर बनना चाहता है?
लेकिन वह जो बतियाने आते हैं वक्त-बेवक्त
वो नई उम्र के बेकायदा तक़ाज़े
बादामी बौरों तले महकते वादे!
वो छुप्पम छुप्पी में उमगते ज्वार!
झिड़क देती हूँ, परे हटो
बहुत हुआ यह अतीत राग
मुझे आगे बढ़ने दो
नहीं बनना मुझे पीछे देखूँ
नहीं पढ़ना मुझे बदरंग इतिहास।
झटक देती हूँ गलबहियाँ दोस्त यादों की
तब बंद आँखों के पीछे घूरने लगती है
एक चौंकी हुई मछली
तल से दौड़ आई जो सतह पर,
मुझे ढूँढ़ती,
लौट जाती है निराश, पानी के घर में!
टपक पड़ते हैं रुके हुए आँसूँ
प्रतीक्षारत
हर्षा की उदास आँखों से!
दोस्तों के लारालप्पा गीत
गुम हो जाते हैं
परी महल के खंडहरों में!
हवा में गूँजता है विषाद राग,
भूलने से हल नहीं होते
वक्त के ज़रूरी सवाल।
तब हिलोरता है मुझे
एक दुर्बोध प्रश्न
क्या डूबने दोगे
सुंदरसेन की नगरी को वुलरझील में
फिर एक बार?
चप्पे-चप्पे पर लिखी कहानियाँ
क्या लौट जाएँगी
गुणाढ्य की वृहत्त कथा में?


Image: Nepalese woman
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Arnold Henry Savage Landor
Image in Public Domain

चन्द्रकांता द्वारा भी