एक बच गया आदमी जो चीखा

एक बच गया आदमी जो चीखा

आ रही है आवाज, लगातार उफनती हवा की
लगातार कराह रहे किसी व्यक्ति की पीड़ा-सी।
दे रही है दस्तक बंद दरवाजे पर लगातार
लगातार झकझोर रही है बंद, सहमी खिड़कियाँ।

और वह, दबोचे कानों को
पड़ा है किसी अनहोनी घटना के
अघटित भय के सिरहाने
सोच रहा है लगातार
उफनती हुई हवा
क्या बख्श नहीं सकती बस्तियों को?

फिलहाल तो हारी हुई है
बारबार पंजा चलाती यह उफनी हवा
बंद कुंडियों से।
और वह हादसे से बचे
किसी भी स्वार्थी आदमी-सा भयभीत
अपनी खैर का जश्न मना रहा है भीतर।

जब थमेगी हवा टुक अपने से थक कर
तो मना लेगा औपचारिक मातम भी
बर्बाद हो चुके ऐरे-गैरे घरों का।
पर लग चुका हो जब खून मुँह
एक सिलसिला बन चुका हो लत
तो कब तक बच पाएगा
यूँ उस उफनती हवा से?

सोच रहा है लगातार–
लगातार सोच रहे विद्वानों-सा,
बुद्धिजीवियों-सा,
उफनी हुई हवा
क्या बख्श नहीं सकती बस्तियों को?

पृथ्वी पर खत्म हो रहा है जल
सूर्य घिसता जा रहा है लगातार
प्रकृति तोड़ रही है दम हर पल
गुजर जाती हैं मगर ये चेतावनियाँ
खबर बन कर।
भय नहीं व्यापता बस यह तसल्ली कर
कि अपनी उम्र तक तो बरकरार हैं न
ये तमाम चीजें।
और खुश हो लेता है आज का आदमी
यूँ समेट कर मनुष्यता की कड़ी खुद तक।

एक दैत्य
जबकि हँस रहा है लगातार।

हवा है कि एक काली चीत्कार से
गुँजा रही है पृथ्वी और आकाश।
नाच रही हैं बेचैन आफ़तें।
कर रही हैं कोशिशें
खूबसूरत बलाएँ घुसने की।
निकल पड़ी हैं कुछ भय-मूर्तियाँ
ताने छाता।
बेताब है बाढ़कामी निर्लज्ज वर्षा।

कुछ और खिसक कर पाताल की ओर
कुछ और खिसक कर मनुष्यता से
जैसे बचाता फिर रहा है जान
दुबका एक बच गया आदमी।

तमाम देवताओं की जय
उसकी जबान पर है।
हथेलियों से गायब हो रही लकीरों पर
उसे पश्चाताप है।
बदल रही है उसकी कल्पना, कन्दराओं में।
अवतरित हैं उसके होठों पर
एक भूली हुई प्रार्थना।

वह चुरा रहा है आँखें
लेकिन चुरा नहीं पाता
उसकी आँखों में उतरने लगी है नग्नता।
उसने पाया लिख गया है
उसकी छाती पर भीरू।
नहीं, नहीं है वह भीरू
वह चीखा।

उसे लगा
अब नहीं रहा भय
हवा के उफान से।
खुल गईं हैं उसकी खिड़कियाँ
और जूझने लगी हैं
दरवाजे पर खड़ी हवा के उफान से
भड़-भड़ भड़-भड़।


Image : The Desperate Man (Self Portrait)
Image Source : WikiArt
Artist : Gustave Courbet
Image in Public Domain

दिविक रमेश द्वारा भी