कितनी चाह कितने रंग

कितनी चाह कितने रंग

(एक)

चाह थी और बेपनाह थी
लेकिन राह थी जो ख़त्म न होती थी
सो चलते रहे
पाने-खोने के खेल में
हारते और हाथ मलते रहे
अटके हुए भटके हुए
जहाँ पहुँचे, जहाँ ठहरे
वहाँ अपने हिस्से बस इक आह थी
जिसे बार-बार बनाना चाहा
पता चला, वह ज़िंदगी तबाह थी!

(दो)

रंग थे तरह तरह के
जिन्हें देख हम दंग थे
इनमें कोई रंग हमारा न था
हालाँकि ऐसा नहीं कि
हमने ख़ुद को सँवारा न था।
मगर खुशियाँ मनाने में हम ज़रा तंग थे
उदासियों से दोस्ती थी
और कई दुख हमारे संग थे।

(तीन)

जीना था न जीने का करीना था
जो चाहा वह हुआ नहीं
जो हुआ उसने हमें छुआ नहीं
जो छू सकती थी ऐसी हुई कोई दुआ नहीं
बेशक उम्मीद थी
और एक एहसास भीना-भीना था
किसी ने जाना न देखा
हमारे पास एक धड़कता हुआ सीना था
जिसने हमें यहाँ भेजा और भेजकर भूल गया
वह ईश्वर बड़ा कमीना था।

(चार)

जाने दो, याद आने दो
कोई था जिसने यह जीवन जिया था
छक कर नहीं थक कर ही वह प्याला पिया था
जिसमें अनुभव का ज़हर भरा था
जो दुनिया ने अपने चंचल हाथों से दिया था।
बहलाने दो मन को
कि सब कुछ ऐसे ही रहेगा हमेशा
कि कवि कहेगा हमेशा वह मृत्यु से बड़ा है
बिना देखे कि काल नाम का देवता
ठीक उसके पीछे खड़ा है
मगर लिखने दो जो उसे ज़िंदगी ने नहीं दिया
उसे अक्षरों में पाने दो, जाने दो।


Image : Seated Peasant
Image Source : WikiArt
Artist : Paul Cezanne
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