मेरे आस-पास

मेरे आस-पास

यादों की अदृश्य डोर…
बरसों की नहीं, जन्मों की यादें।
कैसे-कैसे मौसम
जाने कितने जिस्मों की ओढ़नी!
और फिर से इस बार
जनम लिया हमने
मैंने और तुमने!

पर्दों से ढँकी हुई
अनगिन खिड़कियाँ।
एक खिड़की का पर्दा हटाता हूँ
दो जिस्म नजर आते हैं
एक बूढ़ा और एक बूढ़ी।
घरघराती आवाज में बूढ़ा कहता है
‘पाहुना आए हैं, कलेवा ले आओ।’

लिपे-पुते आँगन में
खटिया बिछाई जाती है।
सत्तू तैयार होता है।
गुड़ घोलकर शरबत बनाया जाता है।
बुढ़िया ने घूँघट नहीं लिया
मगर सर पर पल्लू
कुछ इस तरह रखा है
कि लाख कोशिश करने पर भी
बुढ़िया का चेहरा नहीं दिखता।

शरबत पीने के बाद
बूढ़ा अपनी सफेद झबरीली
मूँछें पोंछता है
गौर से देखता हूँ
लेकिन कोई मेहमान नहीं दिखता!
फिर पाहुना किसको कहा था?
मेरी तंद्रा टूटती है
ठीक उसी वक्त
पीपल के पेड़ पर बैठा कौआ
काँव-काँव करने लगता है।

खिड़की को परदे से ढँक
पीछे और पीछे सरकता जाता हूँ
जब दीवार अड़ने लगती है
तो सिर को दीवार पर टेक लेता हूँ
एक आवाज कानों में गूँजती है
‘यहाँ कोई किसी का नहीं
लेकिन हर कोई
किसी न किसी से जुड़ा है।’

पुरखों के दिन
फिर से आ गए
पैर की चोट ने
फिर लाचार कर दिया
सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाता हूँ
इन दिनों भी।
जाने कहाँ से आकर
छत पर कौवे बोला करते हैं
सबसे नीचे वाली सीढ़ी के पास
कुर्सी डालकर बैठ गया हूँ।
छत पर आती आवाजों
और पत्तों की सरसराहट से
बाहर के परिदृश्य की
कल्पना कर रहा हूँ।

मैंने महसूस किया है
आत्माओं का संकेंद्रण
…मेरे आसपास!

मुझे चोट पहुँचाने वाले
मेरे जिस्म तक ही
पहुँच पाते हैं बस!
मेरी रूह के माथे पर
काला टीका लगा गया है कोई।
गहरी शांति व्याप्त हो गई
…मेरे भीतर।

सुनो,
तुम ही वो एकमात्र देह हो
जिसकी रूह का आवागमन
मैंने प्रत्यक्ष महसूस किया है।
लगभग पूरा पखवाड़ा बाकी है अभी
कभी किसी दिन
कुछ घंटों के लिए चली आना।
किसी अदृश्य ने माँगी हैं मुझसे
तुम्हारे हाथों की बनी
खीर और पूड़ियाँ!
धूप लगाना है मुझको
तुमको माध्यम बनाकर।
आओगी ना…!


Image : West Tibetans
Image Source : WikiArt
Artist : Vasily Vereshchagin
Image in Public Domain