आग सेंकता घर

आग सेंकता घर

चढ़ते दिन
और ढलती शाम के बीच
खाली होता घर
जैसे इंतजार कर रहा होता है
किसी दुर्घटना का
कई दुर्घटनाओं के बाद ही तो
परिस्थिति के इस मुहाने पर
आ खड़ा हुआ है घर।

डर और आशंका के
अंधकार-उजास में
इतना कमजोर हो चुका है
घर का मन कि वर्तमान को
किसी कोने में रख
भविष्य की भयावहता में ही
अपनी असमर्थता का बोझ
कंधे पर रख
परेशान हुआ करता है।

काश! घर को भरोसा होता
किसी चमत्कार में
या कृष्ण के उस मोहक अंदाज में
कि देखते ही देखते
बदल जाती है
सुदामा की दीन-दशा
कि कोई कृष्ण
इतना भाव-विह्वल हो उठे
कि नैनन के जल सौं पग धोए।

घर अब नहीं समझता
और समझना भी नहीं चाहिए
कि मेरी दुर्दशा
पूर्व जन्मों के पाप का नतीजा है
कि सिर्फ प्रायश्चित के लिए ही
मिला है यह जीवन।

अब जब कभी आएँगे कोई नाथ
इस गाँव के लोग तैयार बैठे हैं
उनके पैरों में फफोले देने के लिए
ताकि वे भी जान सकें
कि स्तब्ध समय के बीच
आग सेंकता घर
अब समझने लगा है–
असुरक्षा ही है जीवन का सत्य
और बचे पल में
खुशियाँ गढ़ लेना ही है उत्सव।


Image: Fishermen on the Volga
Image Source: WikiArt
Artist: Aleksey Savrasov
Image in Public Domain