बदलते परिवेश
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- 1 October, 2021
बदलते परिवेश
यह दुनिया बदल गई है
बदल गया है सोचने का ढंग
चाल ढाल फैशन और मुलम्मा ने
ढक दिया है अंतस को
शर्म और हया चली गई है
स्त्रियाँ पहनने लगी हैं पुरुषों की पोशाक
बिना आँचल और दुपट्टों वाला परिधान।
भावना, इच्छा
मन की तरंगें भी कुछ अलग ही हैं
टीवी, इंटरनेट
मोबाइल में व्यस्त हैं ये
बदलती जा रही है जीवन शैली
बच्चे व्यस्त हैं वीडियो गेम्स में
नेट में, फेसबुक पर
माँ व्यस्त है किट्टी पार्टियों में
पिता को इनकी परवाह नहीं
इनकी दुनिया अलग ही है
एक दुनिया अभी है
जो नहीं बदली
गोयठा पाथती महिला
गोल-गोल पाथती है अपनी दुनिया
गोयठे के वृत्त में
समेटे अपनी अस्मिता
उलझे बालों के जूड़ों पर
टिका उसका आँचल
टस से मस नहीं होता
पैरों की बिछिया
चाँदी के पायल
नाक में नथिया
और भर माँग सिंदूर में वह
अपने को भारत के दर्पण में
थापती है
गोयठा है उसका दर्पण
आँखों के सामने
जिसमें उभरता है वृत्तचित्र
पीठ पर बोझ उठाए पति
दिन-रात जुतता है
कोल्हू के बैल की तरह
अट्ठा गोटी खेलती बच्चियाँ
आँखों में हैं आँसू
रोती हैं थोड़ी सी हुई चूक पर
जलावन की लकड़ियाँ
चुन-बीछ कर
चूल्हे की आग
जलाने की प्रतीक्षा में
माँ का इंतजार करती बेटियाँ
करती हैं टाइम-पास
खेलती हैं अट्ठा-गोटी
पत्थरों के पाँच टुकड़ों से
बनाती है खेल
एक पत्थर जाएगा ऊपर
चार नीचे
जितनी देर में ऊपर जाकर
आएगा वापस अट्ठा
उतनी देर में ही
समेट लेना होता है
बाकी चार गोटियों को
थोड़ी सी चूक से
गिर जाएगा अट्ठा
नहीं समेट पाएगी गोटी
बैठाना पड़ता है ताल-मेल
तभी खेल पाएगी अट्ठा-गोटी
लगता है बच्ची अभी से
बिठा रही है सामंजस्य
जीवन से।
ताल-मेल ठीक रहा
तभी ठठ पाएगी इस दुनिया में
मिल पाएगी उसे रोटी।
गोयठे के वृत्त में
उभरता है बेटा
चरा रहा है बकरियों को
और सह-भागियों के साथ
खेल रहा है कबड्डी।
कबड्डी खेलते हुए
नहीं लेना है उसे साँस
लिया नहीं साँस
कि दबोच लिया जाएगा
पटक कर कर दिया जाएगा चित्त
हल्दी-चूना बोलकर ही
बच पाएगा वह।
उसको दुनिया अभी से ही
करवा रही है यह अभ्यास
कबड्डी का खेल
खेलना है उसे जीवन भर
उसे भी पिता जैसा जुतना है
कोल्हू के बैल की तरह
नहीं लेना है साँस दिन-रात
साँस लेने की जहमत की
तो पटक देगी दुनिया
चढ़ जाएगी छाती पर
बोल-हल्दी-चूना।
Image: Celeste in a Brown Hat
Image Source: WikiArt
Artist: Mary Cassatt
Image in Public Domain