गंगा सागर

गंगा सागर

इतिहास से विलुप्त
पुराण से निर्वासित
हम लौट रहे हैं इन्द्रप्रस्थ से
हमने अपने नाखून से खोदे जलाशय
बैल का जुआठ गले में बाँध कर,
अरावली में चलाया हल,
अपनी पीठ को बनाकर हेंगा,
विंध्य में उपजाया अन्न
हम बनाते रहे सेना के लिए रथ,
राजा के लिए सुरंग,
मंत्री के लिए चलाते रहे चँवर
मैसूर से चरखारी तक, किले बनाए
हमने गुंबद, मेहराब, गगनचुंबी इमारतें
तामीर कीं, न जाने
कितनी इमारतों में दबे हुए हैं
हमारे उखड़े हुए नाखून
हमारी आँखें इतनी थकी रहीं,
कभी देख नहीं पाए अपने लिए
कोई सपना
हम जागते रहे दिन-रात
रानियों की कब्रों को,
इतिहास में जगह दिलाने के लिए
जिस जगह रखा है राजा का जूता, बंदूक
थूकदान और मरे हिरण की खाल
क्या वहाँ दिखी हमारे बच्चे की करधनी
कहीं मिली मेहरी की बिछिया,

जहाँ रखी गई हैं रानी की डोली
क्या वहाँ किसी कोने में दिखी
कहारों की लाठी, उनका गमछा
हमारी कोई शौर्य गाथा नहीं है
जब्त हो चुके हैं हमारे फावड़े, हथौड़ी,
हंसिया, दरांती
खंभे के एक सिरे पर हाथ
दूसरे पर बाँधकर अपना पैर
हमने बना लिया है सेतु
अपनी ही देह पर चढ़कर
हम पार कर रहे हैं गंगा सागर!


Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
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