जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ

जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ

हिमपात नहीं
हवा में शीतलता नहीं
देह के अंदर से लेकिन
निकलती जा रही ऊष्मा
उसके दिन लगातार ठंडे हो रहे हैं

एक दिन देह जब बर्फ हो जाएगी
उसे कंबल के नीचे छोड़
खाट से नीचे उतरेगा और
इतना चुपचाप निकल जाएगा
धुँध में घुलने के लिए
कि किवाड़ पर पहली
धूप के पहले से ही
दिनभर पहरेदारी में मुस्तैद
कुत्ते तक को पता नहीं चलेगा
वह कोठरी के अंदर
अब नहीं रहा साधारण आदमी
दुनिया से इसी तरह जाता है
उसकी आँखें
केवल धुँध को पहचानती थीं
अक्षरों को आँखों से नहीं
चश्मे के शीशों से पढ़ता था
बस्ती समझती रहेगी
हर दिन की तरह
अँधकार, सीलन और जालों से भरी
पुरातन गंध से गंधाती कोठरी में
उसी तरह पड़ा वह चबा रहा होगा
पुराने पीले अखबार का
एक-एक अक्षर
उसका समाचारों से
सरोकार इतना ही था
कि जैसे-जैसे सरकते जाते थे अक्षर
वैसे-वैसे उनके साथ
कदम ताल करतीं
बाबा आदम के काल की
घड़ी की सुइयाँ
उस आदमी को
रात के तट तक पहुँचा आती थीं
जहाँ डूब रहा होता था
उस दिन का सूरज,
थरथराती पसलियों से
दुर्बल आवाज निकलती
चलो, एक सूरज और डूबा
पता नहीं, कितने अभी और बाकी हैं!
सारी बस्ती उस दिन भी समझेगी
डूबते सूरज गिन रहा है
जबकि वह अंतिम सूरज
गिन चुका होगा
साधारण आदमी के सूरज
ऐसे ही बेमालूम डूबते हैं
जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं।


Image : Night
Image Source : WikiArt
Artist : Mikalojus Konstantinas Ciurlionis
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