मेरा सन्नाटा
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- 1 April, 2015
मेरा सन्नाटा
मेरी परछाई के गहन अंधकार को
तुम जगमग कर देती हो
अपने विस्तार से
कितनी आभा है तुम्हारे भीतर
मेरा सन्नाटा पी लेती हो
तुम मेरी देह रूपी समुद्र में
सोन मछली की तरह
लगा रही हो परिक्रमा
मेरी निःशब्दता को तुम
खंड-खंड विलीन करती हो
मैं पेड़ की छाँव में भी
पसीने से तरबतर हूँ
मैं तुम्हारा क्षमा प्रार्थी बन
तुम्हारी आवाज के वलय में
फड़फड़ाते हैं होंठ मेरे
जब हम सेमल के फूल के
बीच में सोए थे
याद है ना तुम्हें
तब पुकारा था तुमने
तब काँटों वाले लाल गुलाब भी
खिल उठे थे
हम पानी पर चलते हुए
जुदा हुए थे
हम फिर मिलेंगे एक बार
चाँदनी रात की ओस में
सूरज उकसने से जरा पहले
सुबह का गीत गुनगुनाते हुए
एक बार फिर जुदा हो जायेंगे
सफेद फूलों की तरह
अँधेरी रात में तारों की तरह
सन्नाटों के बीच।
Image: Basohli painting of Ragaputra Velavala of Bhairava
mage Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain