राही और मंजिल
- 1 August, 1951
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- 1 August, 1951
राही और मंजिल
उषा में ही क्यों तुम निरुपाय
हारकर थक बैठे चुप हाय?
मुसाफिर, चलना ही है तुम्हें; अभी तो रातें बाकी हैं!
देखकर तुम काँटों के ताज
फूल से हो नाहक नाराज!
जानते तुम इतना भी नहीं–
प्यार को है पीड़ा पर नाज?
ऊँगलियों की थोड़ी-सी चुभन बना देती तुमको बेजार;
हाय मधुऋतु में ही झड़ रहे, अभी बरसातें बाकी हैं!
बताता है नयनों का नीर–
चुभे हैं कहीं हृदय में तीर।
मगर क्यों इतने में कह रहे–
कि दुनिया सपनों की तस्वीर?
जरा-सी कंपन पाते ही किया तारों ने हाहाकार;
अभी तो मनकी वीणा पर निष्ठुर आघातें बाकी हैं।
अगर जाना है मुझको पार
बहुत है तिनके का आधार।
और, मत सोचो मेरे मीत,
कहेगा क्या तट से संसार!
जरा-सी चली मलय की झोंक तुम्हारी डगमग डोली नाव;
अभी तो कहता है आकाश कि झंझावातें बाकी हैं!
Image: Ienno-Guio-Dia – friend of travelers
Image Source: WikiArt
Artist: Nicholas Roerich
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