प्रेम माधुरी

प्रेम माधुरी

कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बैठि फेरि, धोए-धोए पात हिलि-हिलि सरसै लगे
बोलै लगे दादुर मयूर लगे नाचै फेरी, देखि के संजोगी जन हिय हरसै लगे
हरी भई भूमि, सीरी पवन चलन लागी, लखि ‘हरिचंद्र’ फेरि प्राण तरसै लगे
फेरी झूमि-झूमि बरषा की ऋतु आई फेरि, बादर निगोरे झुकि-झुकि बरसै लगे।

जिय पै जु होई अधिकार तो बिचार कीजै, लोक-लाज भलो-बुरो भले निरधारिये
नैन श्रौन कर पग सबै पर बस भये, उतै चलि जात इन्हैं कैसे कै सम्हारिये
‘हरिचंद्र’ भई सब भाँति सों पराई हम, इन्हें ज्ञान कहि कहो कैसे के निबारिये
मन में रहै जो ताहि दीजिए बिसारि, मन आपै बसै जामैं ताहि कैसे कै बिसारिये।

इन दुखियन को न चैन सपनेहु मिल्यौ, तासो सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी
प्यारे ‘हरिचंद्र’ जू की बीती जाति औध, प्रान चाहते चले पै ये तो संग ना समायँगी
देख्यो एक बारहू न नैन भरि तोहिं चातैं, जौन जौन लोक जै हैं तहाँ पछतायँगी
बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे, हाय! मरेहू पै आँखें ये खुल ये रहि जायँगी।

यह संग में लागियै डोलैं सदा, बिन देखे न धीरज धानती हैं
छिन्हू जो वियोग परै ‘हरिचंद्र’, तो चाल प्रलै की सु ठानती हैं
बरुनी में धिरैं न झपैं उझपैं, पल में न समाइबो जानती हैं
प्रिय पियारे तिहारे निहारे बिना, अँखिया दुखिया नहिं मानती हैं।

पहिले बहु भाँति भरोसो दयो, अब ही हम लाई मिलावती हैं
‘हरिचंद्र’ भरोसे रही उनके सखियाँ जो हमारी कहावती हैं
अब वेई जुदा ह्वै रहीं हम सों, उलटो मिलि कै समुझावती हैं
पहिले तो लगाय के आग अरी! जल को अब आपुहिं धावती हैं।

उधो जू सूधो गहो वह मारवा, ज्ञान की तरे जहाँ गुदरी है
कोऊ नहीं सिख मानि है ह्यां, इक स्याम की प्रीति प्रतीति खरी है
ये ब्रजबाला सबै इक सी, ‘हरिचंद्र’ जू मंडली ही बिगरी है
एक जौ हाये तो ज्ञान सिखइये कूप ही में यहाँ भाँग परी है।


Image Source : Nayi Dhara Archives