अहसासों के जलतरंग

अहसासों के जलतरंग

दालानों की
हँसी खनकती बाजूबंद हुई,
आँगन की अठखेली बोली नूपुर छंद हुई।

चुप्पी के मेहराबों की भी
हवा लगी गाने
दिनचर्या को मुखर कलेण्डर
देते अब ताने।
मौसम बन–
आ गया डाकिया, पातीगन्ध हुई।

सपनों की उदास बस्ती में
खुशबू टेर गई
अहसासों के जलतरंग को
पुरबा छेड़ गई।
आँगन में–
खिलती
खिलती निशिगंधा भी स्वच्छंद हुई।

किरणों के झुरमुट में उलझी
चिड़िया सी चितवन
पूनम फिर-फिर रूप निहारे
झील बनी दर्पण।
हर वर्जना–
लाँघकर तृष्णा चिर संबंध हुई।


Image :The Large Stone Table under the Chestnut Street at Marquayrol
Image Source : WikiArt
Artist :Henri Martin
Image in Public Domain