अम्मा

अम्मा

अम्मा आँखों की स्याही से
नया नहीं कुछ लिख पाती है

जब से आई शहर सुआ-सा
रहता है यह मन पिंजर में
किसी पुराने कंबल जैसी
रहती है वह अपने घर में

ठहरी हुई नदी-सी अम्मा
बस ख़ुद में ही खो जाती है

पोता-पोती मोबाइल में
दिनभर ही खोये रहते हैं
उम्मीदों के वातायन भी
कुहरा ही अक्सर भरते हैं

मन का शिशिर झेलती अम्मा
ख़ुद से ही अब बतियाती है

अम्मा जिसके स्वप्न गाँव में
बार-बार अँखुआते थे कल
शहर हवा के साथ तैरकर
आने को थे कितने बेकल

उन्हीं स्वप्न-खँडहर पर अम्मा
दीपक आज जला आती है।


Image : The Old Usurer
Image Source : WikiArt
Artist : Jusepe de Ribera
Image in Public Domain

गरिमा सक्सेना द्वारा भी