जागती रात
- 1 December, 1951
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- 1 December, 1951
जागती रात
कुआर के फैले हुए आकाश में
कुछ सुधर उजले मेघ–
जिन पर देर से चलता हुआ थकने लगा है
चाँद दशमी का।
हरसिंगार,
दूर उपवन में वहाँ झरने लगा है,
चूने लगे हैं धवल-पाटल।
विरहिणी रात की पानी-भरी आँखें
प्रतीक्षा की
झिपकने-सी लगी हैं,
औ चू पड़ने लगी हैं
शबनमी बूँदें।
फिर भी जागती है रात।
दूर से आता हुआ वह शोर
बढ़ता ही रहा है।
मीठी-सी सुरीली बंसरी की तान पर,
कोई जिंदगी के गीत गाता ही रहा है।
शायद, मरण की राह पर चलता हुआ
जीवंत मानव
उमंग में भरकर खुशी से वंदना-पूजा
कर रहा है
शक्ति की।
देखती, सोती हुई यह रात दशमी की–
यह इंसान है–
पास जिसके मौत भी आती हुई है काँपती
थर-थर–
जो सर्वहारा कर रहा है
शक्ति की पूजा।
“प्रिय आए न आए
मैं न सोऊँगी, न रोऊँगी।
करूँगी चाँदनी से, चाँद की बिंदिया लगा
शृंगार अपना।
पर जब न होगा चाँद, न होगी चाँदनी
तब भर उठेंगे नयन-कोरक
एक सजल अवसाद से।
मैं गूँथ लूँगी गगन में बिखरे हुए इन तारकों को।
अँधेरे में सँजोती-सी फिरूँगी
इन छींटे कणों को
शायद रोशनी मिल जाए
मेरी जिंदगी के हारते-से कुछ क्षणों को।
अँधेरा ही नहीं है अर्थ मेरा।
अँधेरा तो निराशा है,
मरण है
मेरा ही नहीं, चेतन-जगत् का।
मृत्यु
आवश्यक घड़ी है मैं उसे क्योंकर बुलाऊँ।
भूखी शेरनी को (भिखारिन को)
निवाला जिंदगी का इस तरह दे दूँ।
वह तो स्वयं टूटेगा, जब जिंदगी थक जाएगी
जब प्रिय न आएगा,
वरूँगी जिंदगी को ही।
औ, जलती धूप बत्ती की मधुर मोहक सुगंधि से।
भरती रहूँगी
मौत से लड़ते हुए उन हारते थकते क्षणों को।
इस तरह मैं रोज़ जगती ही रहूँगी
फिर रोज़ जागूँगी, हसूँगी,
कि जिसमें सो सकेगा
मृत्यु से लड़ता हुआ इंसान।
ब्राह्म-वेला में अनावृत छोड़ ऊषा को
अलग हो जाऊँगी
कौमार्य ले अपना अछूता।
फिर जग सकेगा
अपने में नई एक ज़िंदगी भर कर
आज का सहमा हुआ, हारा-थका
इंसान”–सोचती है रात।
जागती है रात।
Image: Moonlit Night
Image Source: WikiArt
Artist: Ivan Kramskoy
Image in Public Domain