काम
- 1 January, 1952
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- 1 January, 1952
काम
जब तक मधुर-मधुर मलयानिल
बन मन-वन में बहते हो,
मंद-मंद रस-धारा बन कर
अंत:पुर में रहते हो,
काम! तभी तक सुख जीवन में,
एक अनिर्वच है आनंद।
मधुऋतु की शाखा-खाखा पर
कोकिल के बिछते हैं छंद।
पर, जब तुम अँगड़ाई लेते
बन कर विद्रोही तूफान,
तब तो सागर-मंथन होता,
प्रेमी के उड़ जाते प्राण।
जब तक तुम जलते रहते हो
मधुर-मधुर बन कर दीपक
भीनी-भीनी कमल-गंध बन
छाए रहते हो जब तक,
हे मंमथ! तब तक सुंदर है
चाँद, चाँदनी मधुर-मधुर।
करते हैं झंकार मनोरम
रति के मंद चरण नूपुर।
पर, ज्यों ही तुम हो जाते हो
सघन मेघ में तडित् प्रचंड,
फिर तो नयन अंध हो जाते,
और हृदय के शत्-शत् खंड।
धीमी-धीमी आँच हृदय में
जब तक रहती जलती है,
मधुर-मधुर पीड़ा मर्म स्थल में
सुकुमार मचलती है,
तब तक हे अनंग, जीवन है;
जीवन में है चिर-यौवन।
यौवन-वन के कुंज-कुंज में
पुँजीभूत भ्रमर–गुंजन।
पर, ज्यों ही नभ गर्जन करते
क्षुधा-दग्ध शार्दूल – समान,
मुख में ही रह जाते तृणदल,
हो जाते मृग अंतर्धान।
जब तक एक जलन है मीठी–
मीठी – सी, बेमानी – सी,
जब तक केवल इच्छा भर ही,
कुछ भूली – पहचानी – सी,
तब तक है सौंदर्य, न जब तक
घूँघट का पट खुलता है।
एक रहस्य बना है जब तक,
रंग न मुख का धुलता है।
कुशल तभी तक, सधे हुए हैं
जब तक पुष्प-धनुष पर बाण।
छूटे जहाँ कि मानो, तत्क्षण
टूट गया शिव का भी ध्यान।
जब तक मुख पर अवगुंठन है,
लज्जा से आकुल लाली।
भरी अछूते फूलों से है
जब तक जीवन की डाली,
तब तक केवल आकर्षण है,
रस-लावण्य उमड़ता है।
वासंती कुंजों से मधुकण
झीना – झीना झड़ता है।
पर, ज्यों ही तुम हो जाते हो
उज्ज्वल दिन – प्रकाश – से नग्न,
हो जाती जीवन की नौका
त्यों ही भव – सागर – जल – मग्न।
जब तक तुम सम्मुख मकरध्वज!
मंद – मंद मुसकाते हो,
आत्मा ही आत्मा से तब तक
आलिंगन – सुख पाते हो।
वहीं मिलन का चरम बिंदु है,
शोणित जहाँ उफनता है।
झंझा बनते श्वास, किसी का
रूप हलाहल बनता है।
उत्कंठा, कौतुक, कौतूहल;
प्रणय कलह के लीला-कार्य,
काम! तभी तक सार्थकता है,
रक्षित है जब तक कौमार्य।
Image: A Barbet (Himalayan blue-throated bird)
Image Source: WikiArt
Artist: Ustad Mansur
Image in Public Domain