कैकेयी के चरित्र का विकास

कैकेयी के चरित्र का विकास

विश्वरचयिता की भाँति कवि भी सृष्टि-कर्त्ता है। उसकी सृष्टि सौंदर्य की सृष्टि है। अपनी असाधारण प्रतिमा एवं असाधारण पर्यवेक्षण-शक्ति के द्वारा वह इस विशाल विश्व के अणु-अणु में सौंदर्य के दर्शन करता है। न जाने कितनों ने व्याधा के शर से घायल क्रौंच पक्षी को देखा होगा; लेकिन उनके अभावुक हृदय पर वह प्रतिक्रिया न हो सकी जो कि कोमल कवि-हृदय पर हुई। इसी द्वंद्व से कवि को काव्य लिखने की प्रेरणा मिली और फिर राम का चरित्र सामने आया जिससे वे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें ‘रामायण’ की रचना करनी पड़ी।

वाल्मीकि की लेखनी ने रघुकुल को अमरता प्रदान कर दी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राम का चरित्र स्वयं ही सुंदर है; लेकिन उसको व्यापक एवं अमर बनाने का श्रेय तो वाल्मीकि को ही है। जिसकी अनुभूति सत्य पर आधारित हो, जिसकी कल्पना अनंत उड़ान भरती हो और जिसकी वाणी में माधुर्य के साथ शक्ति का भी समावेश हो, वह क्यों न लोगों के हृदय पर अपनी अमिट छाप छोड़ेगा। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति का वह आदि काव्य आज भी उतना ही नवीन एवं रोचक है जितना कि वह प्राचीनकाल में था। प्रथम कथा जो बालक अपनी नानी के मुँह से सुनता है, वह राम और सीता की कथा होती है। बड़े होने पर जब वह जीवन के क्षेत्र में पदार्पण करता है, तो पथ-प्रदर्शन वह रामायण से ही पाता है। एक भारतीय के लिए राम का चरित्र वही कार्य करता है, जो अमावस्या के घोर अंधकार में दुर्गम विजन के पथिक के लिए दूरी पर टिमटिमाता हुआ दीपक। रामायण ने राम को तो अमर बना ही दिया, साथ ही उससे राम से संबंधित अन्य चरित्र भी अमर हो गए। अमर बन कर राम को प्राप्त हुई युग-युग की श्रद्धा एवं भक्ति, लेकिन कैकेयी को मिला अमरता के पात्र में घृणा रूपी विष। चाहते हुए भी वह रुक नहीं सकती। युगों की घृणा का बोझ वह सहती आई है। नहीं कहा जा सकता कि आदि-कवि ने कैकेयी के प्रति न्याय किया अथवा अन्याय–राम के वनगमन के लिए उन्हें कैकेयी-जैसे चरित्र की कल्पना करनी पड़ी अथवा उसके चरित्र का यथातथ्य चित्रण मात्र ही। सत्य तो यही है कि उन्होंने उस काल की भावना के अनुसार ही कैकेयी को देखा।

वाल्मीकि रामायण की कैकेयी एक साम्राज्ञी के रूप में हमारे सामने आती है। उसकी इच्छा का विरोध करने का साहस किसी को नहीं हो सकता। एक बार जो उसका मन ठान ले, वह होकर ही रहेगा। देवासुर-संग्राम में वह दशरथ के प्राणों की रक्षा करती है और प्रसन्न होकर दशरथ उसे दो वचन देते हैं। अपने अधिकार के लिए वह लड़ना भी जानती है। विवाह के समय राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता को यह वचन दिया था कि कैकेयी का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा। तब कौशल्या के पुत्र पर राजा की यह अनुचित कृपा कैकेयी कैसे सहन करती? इस अन्याय के विरोध के लिए उसे राजा दशरथ के दिए हुए उन्हीं दो वचनों का आश्रय लेना पड़ता है, पहला यह कि राज्य भरत को मिले और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास। इस प्रकार कैकेयी दशरथ के अन्याय का पूर्ण प्रतिशोध लेती है। इसके लिए उसे वैधव्य ग्रहण करना पड़ता है, पुत्र द्वारा अपमानित होना पड़ता है; लेकिन वह यह सब सहन करती है। किसलिए? अपनी अधिकार-भावना की तुष्टि के लिए। वाल्मीकि की कैकेयी में उदारता एवं महानता के दर्शन नहीं होते। जब दशरथ राम के साथ सेना एवं बहुमूल्य वस्तुएँ भेजना चाहते हैं, तो वह बिगड़कर कहती है कि उन सब वस्तुओं पर तो भरत का अधिकार हो गया है। अन्य लोग जब उसे समझाने की चेष्टा करते हैं, कि पुत्र को वनवास कैसे दिया जा सकता है तो झुँझला कर राम की तुलना वह राजा सगर के पुत्र संजय से करती है जो प्रजा को घोर दुख दिया करता था। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए व्यक्ति का आचरण ठीक ऐसा ही होता है। उस समय उसके आगे विवेक आदि का कुछ भी मूल्य नहीं होता और ऐसे व्यक्ति के लिए हमारे हृदय में किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं जग सकती। इसलिए आज तक कैकेयी के इस रूप को यदि संसार धिक्कारता रहा है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

परिवर्तन प्राकृतिक नियम है। समय के साथ प्रत्येक वस्तु बदलती है। जन-भाषा का परिवर्तन चक्र भी सदा एक चाल से चलता रहता है। धीरे-धीरे देवभाषा संस्कृत का स्थान प्राकृत ने और प्राकृत का अपभ्रंश ने लिया, हिंदी भाषा और उसकी अनेक बोलियों की भी उत्पत्ति अपभ्रंश से हुई। मध्यकाल में यही जनभाषा थी। लेकिन उस समय वाणी की साधना इने-गिने व्यक्ति ही कर सकते थे। सरस्वती का विशाल साम्राज्य अत्यंत संकुचित हो गया था। वाल्मीकि-रामायण के काव्यत्व का रसास्वादन कौन करता? हाँ, धार्मिक-कथा के रूप में उसके प्रचार की क्षति नहीं हो पाई थी। इसी समय संयोग से राम भक्त महात्मा तुलसीदास का आविर्भाव हुआ। अपने इष्टदेव राम के चरित्र पर वे तन-मन से मुग्ध थे, उनका जीवन ही राममय था। भक्ति के आवेग में उनकी वाणी मुखरित हो उठती थी और उत्तम काव्य का रूप धारण कर के सामने आती थी। अपने प्रेम की अनुभूति की अभिव्यंजना से कवि को भी एक विशेष प्रकार का आनंद एवं शांति प्राप्त होती है। इसलिए तुलसीदास ने अपने इष्टदेव की यशोगाथा अपनी मातृभाषा में गाई। ‘मानस’ का एक-एक शब्द रस से परिपूर्ण है, क्यों न हो, जबकि इसके पीछे प्रेरणा है “स्वांत: सुखाय” की। ‘मानस’ में हमें एक उच्च कोटि के भक्त का दृष्टिकोण मिलता है। जो व्यक्ति स्वयं इतना महान हो, उसके द्वारा निर्मित चरित्रों में महानता का समावेश तो स्वयं ही हो जाएगा। यही कारण है कि तुलसी के पात्र वाल्मीकि के पात्रों से महान हैं। राम तो तुलसी के इष्टदेव थे इसलिए उनकी श्रेष्ठता दिखाना तो तुलसी का अभीष्ट था ही; लेकिन आश्चर्य तो यह है कि तुलसी की कैकेयी में भी वह क्षुद्रता न आ पाई जो कि वाल्मीकि की कैकेयी में झलकती है।

“हानि लाभु जीव नु मरनु, जसु अपजसु विधि हाथ” को मानने वाले तुलसी कैकेयी को पूर्ण दोषी नहीं ठहराते। उनके विचार में तो मनुष्य विधाता के हाथ का एक खिलौना मात्र है। उस परम सत्ता की आज्ञा के बिना विश्व का एक तिनका भी नहीं हिल सकता। कैकेयी भी उस अलौकिक शक्ति के हाथ में एक खिलौना मात्र थी। वस्तुत: राम को वन भेजने का षड्यंत्र देवताओं ने रचा था और उन्होंने अपनी कार्य-सिद्धि का साधन बनाया कैकेयी को। राम-राज्य के अवसर पर देवता अत्यंत भयभीत हो गए कि अब राम वन नहीं जाएँगे, उन्होंने सरस्वती को मनाया कि किसी तरह से वे ही कोई उपाय निकालें, देवताओं की प्रार्थना सुनकर सरस्वती को अयोध्या जाना पड़ा और–

“नामु मंथरा मंदमति, चेरि कैकेई केरि
अजस पेटारी ताहि करि, गई गिरा मति फेरि।”

फिर क्या था। मंथरा अपना विषैला प्रभाव कैकेयी के ऊपर छोड़ना शुरू करती है–

“पूत बिदेस न सोचु तुम्हारे, जानित हहु बस नाहु हमारे।
नींद बहुत प्रिय सेज तुराई, लखहु न भूप कपट चतुराई॥”

मंथरा की इस नीचता पर कैकेयी को बहुत क्रोध आता है और वह उसे डाँट देती है। लेकिन जब कोई नीच, हितैषी बनकर चापलूसी करता है तो बड़ा-से-बड़ा महात्मा भी धोखा खा जाता है, कैकेयी तो साधारण रानी थी। दोबारा मंथरा के यह कहने पर कि–

“जारइ जोगु मुभाउ हमारा, अनभल देखि न जाई तुम्हारा”

कैकेयी को पूर्ण विश्वास हो जाता है कि संसार में बस यही एक मेरा भला चाहने वाली है।

“सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि।”

यदि उसमें थोड़ा बहुत विवेक था भी तो वह ‘सुरमाया बस’ होने के कारण नष्ट हो गया।

इसमें यह ध्वनि स्पष्ट है कि स्वाभावत: कैकेयी ऐसा जघन्य कार्य नहीं कर सकती थी; लेकिन उसे विवश होकर देवताओं की इच्छा पूर्ण करनी पड़ी और सो भी उनकी कुमंत्रणा से। यह तो था मध्यकाल का दृष्टिकोण, कि मनुष्य पर घटना के पीछे दैवी हाथ देखता था। अलौकिकता में उसका पूर्ण विश्वास था। ईश्वरी न्याय पर वह किसी प्रकार की शंका नहीं उठा सकता था, लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी से दृष्टिकोण बदलने लगे। पश्चिमी सभ्यता के साथ नए विचार भी हमारे देश में आने लगे। जीवन के हर पहलू को आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा। इस वातावरण के फलस्वरूप बंगाल के माईकेल मधुसूदन दत्त ने कैकेयी को एक नितांत नवीन रूप में लाकर खड़ा कर दिया। अपनी पुस्तक ‘वीरांगना’ में माईकेल ने अपने विचारों को कुछ चुनी हुई वीरांगनाओं के पत्रों द्वारा प्रकट किया है। इसमें एक पत्र कैकेयी का दशरथ के प्रति है; जिसे पढ़ने से माईकेल की कैकेयी के प्रति भावना स्पष्ट हो जाती है। यह पत्र इतने व्यंग्यात्मक ढंग से लिखा गया है कि युग-युग से पूजित सत्यवादी महाराज दशरथ की महत्ता के चित्र पर पानी फिर जाता है, और कैकेयी एक साहसी वीर नारी के रूप में हमारे सामने आती है। यद्यपि माईकेल ने भी वाल्मीकि रामायण का ही सहारा लिया है लेकिन उनकी कैकेयी वाल्मीकि की कैकेयी की भाँति दशरथ को विष खा कर प्राण त्याग देने की धमकी नहीं देती, अपितु दशरथ से पूर्ण प्रतिशोध लेना चाहती है। वह भी उसे बता देना चाहती है कि वचन देकर उसका पालन न करने का परिणाम क्या होता है। जब कैकेयी को वचन दिया गया है कि राज्य भरत ही प्राप्त करेगा, तो राम को राज्य कैसे दिया जा सकता है? उस पत्र में कैकेयी दशरथ से कहती है कि कोई बात नहीं, तुम जैसा चाहो करो; तुम्हारा राज्य तुम्हें मुबारक हो, मैं भरत को लेकर अयोध्या से–जहाँ वचन देकर निभाया नहीं जाता–सदा के लिए अपने पिता के यहाँ चली जाऊँगी–

“…चली छोड़ के
पाप की तुम्हारी पुरी, बन के भिखारिणी
दासी, हे धराधव, फिरूँगी देश-देश में”
जाऊँगी जहाँ मैं वहाँ कहती फिरूँगी यों
“अति ही अधर्मचारी रघुकुल पति हैं।”
x x x
पाल शुक सारी उन्हें यत्न से सिखाऊँगी
यह निज दुख कथा और फिर वन में
छोड़ दूँगी, वृक्षों पर बैठ वे गाएँगे–
“अति ही अधर्मचारी रघुकुलपति हैं।”
गायगी प्रतिध्वनि खगों से सीखकर यों–
“अति ही अधर्मचारी रघुकुलपित हैं।”

कैकेयी की इस धमकी में अवश्य ही कुछ सत्य का अंश रहा होगा, तभी तो दशरथ को उसका कथन मानना पड़ा। धर्म के उस ‘सत्ययुग’ में अधर्मचारी बनने का अपयश कौन लेता? माईकेल की कैकेयी पश्चिमी सभ्यता की प्रतीक है। वह पति की आज्ञा पर मर मिटना नहीं जानती वरन् अपने अधिकार के लिए पुरुष से संघर्ष करने में अधिक विश्वास रखती है। परंतु माईकेल मधुसूधन दत्त कैकेयी का सर्वांगीन चित्र न आँक सके; केवल एक ही अंग पर प्रकाश पड़ सका।

आधुनिक युग के महाकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने कैकेयी के चरित्र का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन किया। उन्होंने उसकी साकार प्रतिमा में पूर्ण सजीवता भर दी, जिससे सबका ध्यान उसकी ओर एक बार फिर आकृष्ट हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो आजतक उसके चरित्र पर भ्रम-रूपी काला आवरण छाया हुआ था और गुप्त जी का उस आवरण को खींचना ही था कि अस्थि-चर्ममय–वास्तविक कैकेयी शांतभाव से रंगमंच पर आकर खड़ी हो गई। ‘साकेत’ में कैकेयी केवल रानी या सौतेली माँ ही नहीं, अपितु मानवोचित गुणों एवं दुर्बलताओं से युक्त एक साधारण नारी है। प्रथम बार कैकेयी को मानव के रूप में देखने वाले गुप्त जी ही हैं; और इसीलिए उन्होंने उसका चरित्र चित्रण इतने मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है कि कहीं भी पाठक को यह नहीं कहना पड़ाता कि कैकेयी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। इसके पढ़ने पर पाठक यही सोचता है कि यदि मैं भी उस परिस्थिति में कैकेयी के स्थान पर होता तो ठीक वही करता, जो कैकेयी ने किया था। वाल्मीकि की कैकेयी भी राम को वनवास देती है, तुलसी की भी और गुप्त जी की भी; सभी ने मंथरा द्वारा ही उसे उकसाई गई चित्रित किया। लेकिन गुप्त जी की कैकेयी इन सबसे अत्यधिक स्वाभाविक एवं महान है। इसका कारण शायद परिस्थिति को बड़े सुंदर ढंग से सम्मुख रखना है। साथ ही इस घटना का विश्लेषण भी बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से हुआ है। वाल्मीकि रामायण की मंथरा कैकेयी को इस बात का भय दिखाती है कि राम के राजा बन जाने पर तुम्हें कौशल्या की दासी बनकर रहना पड़ेगा; लेकिन साकेत की मंथरा मातृ-हृदय के कोमलतम स्थल पर आघात करती है–

“भरत से सुत पर भी संदेह
बुलाया तक न उसे जो गेह।”

इस शब्द-वाण के लगते ही कैकेयी को तीक्ष्ण मानसिक पीड़ा हुई–उसकी आँखों के सामने अंधकार छा गया; उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानों समस्त संसार बड़े वेग से घूम रहा है। माँ सब कुछ सहन कर सकती है लेकिन अपने पुत्र की उपेक्षा सहन करना उसके वश के बाहर की वस्तु है, और वह पुत्र भी कैसा? भरत-सा? भरत पर संदेह! कैकेयी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती। एक तो यूँ ही भरत को ननिहाल से न बुलवाकर उसकी उपेक्षा की गई, तिस पर उसके ऊपर राम-विद्रोह का संदेह किया गया।

भरत के चरित्र के प्रति इतना बड़ा अन्याय! हाँ अन्याय! घोर अन्याय! कैकेयी चिल्ला उठी–

“भरत रे भरत, शील समुदाय
गर्भ में आकर मेरे हाय!
हुआ यदि तू भी संशय-पात्र
दग्ध हो तो मेरा यह गात्र।
चली जा पृथिवी तू पाताल,
आपको संशय में मत डाल,
कहीं तुझ पर होता विश्वास
भरत में पहले करता वास।”

इस अन्याय के प्रति कैकेयी ने विद्रोह करने की ठानी। पुत्र के प्रतिशोध के लिए वह समस्त संसार को चुनौती दे देने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन उसी समय उसके हृदय के कोने से एक छोटी-सी शंका उठती है कि कहीं भरत ही मेरा विरोध न करे–

“कहें सब मुझको लोभासक्त
किंतु सुत हूजो तू न विरक्त।”

किंतु साभाग्य अथवा दुर्भाग्य से वही होता है। जिस पुत्र के लिए उसे शत् शत् धिकार सुनने पड़े, जिसके लिए उसने पति को मृत्यु के मुँह में झोंक दिया, वही उसकी भर्त्सना करते नहीं अघाता–

“राज्य, क्यों माँ, राज्य केवल राज्य?
न्याय-धर्म-स्नेह तीनो त्याज्य।
निरख तो तू तनिक नभ की ओर।
देख तेरी उग्र यह अनरीति,
खस पड़ें नक्षत्र ये न सभीति॥
भरत जीवन का सभी उत्साह,
हो गया ठंडा यहाँ तक आह।”

इससे अधिक सुनने की सामर्थ्य शायद कैकेयी में न होती। पति की मृत्यु के बाद यह दूसरी चोट उसको लगती है। परिस्थिति की वास्तविकता की ओर जब उसका ध्यान जाता है तो और भी भौंचक्की-सी रह जाती है। भरत की उपेक्षा की प्रतिक्रिया उस पर बड़ी तेज़ी से होती है; और वह अपने स्वाभाविक पूर्व रूप में आ जाती है। यह स्वयं नहीं समझ पाती कि उसने राम को वनवास क्यों दिया।

चित्रकूट में जब भरत राम को लौटा लाने के लिए जाते हैं तो राम भरत से उसका अभीष्ट पूछते हैं। भरत के मस्तिष्क में तो पहले से ही विप्लव मचा हुआ था, और राम के स्नेह भरे वचनों को सुनकर वे अपने हृदय के आवेग को न रोक सके। अपने आपको जी भर कर कोसा। अंत में वे राम से कहते हैं कि मैंने आपको तुम्हें सौंप दिया इसलिए तुम्हीं बता दो कि मेरा अभीष्ट क्या है। फिर व्यंग्यात्मक ढंग से बोलते हुए कहते हैं कि राज्य तो मुझे बिना प्रयास ही मिल गया, भला इससे बढ़कर और मेरी क्या, इच्छा हो सकती है? लेकिन राम को अपने प्रिय भरत के इस कारुणिक प्रलाप को सुनकर हार्दिक वेदना हुई, और ये शब्द उनके मुख से निकल पड़े–

“उसके आशय की थाह मिलेगी किसको?
जन कर जननी ही जान न पाई जिसको।”

इस कठोर सत्य को पश्चाताप की धीमी आँच में जलती हुई कैकेयी ने सुना और वह बोल उठी–

“यह सच है तो अब लौट चलो घर को।
हाँ जन कर भी मैंने न भरत को जाना
सब सुन लें, तुमने स्वयं अभी यह माना।”

“जब यही बात है तो मैंने जो कुछ भी किया वह भ्रमवश और अज्ञानावस्था में किया, लेकिन अब तुम वापस चलो। मेरी ही आज्ञा से तुमने वनवास लिया था और अब मेरे ही अनुरोध से अयोध्या लौट चलो।”

इसी स्थान पर गुप्त जी की कैकेयी की विशेषता मालूम हो जाती है। वह गलती करके पश्चात्ताप करना भी जानती है। जिसने कभी किसी के आगे दीन वाक्य नहीं कहे थे, वही भरी सभा में अपने आचरण के लिए राम से क्षमा माँगती है और समस्त दोष अपने सिर पर ले लेती है–यहाँ तक कि मंथरा के प्रति भी कोई कटुता नहीं करती। उसी समय फिर उसे ख्याल आ जाता है कि कहीं अब भी लोग भरत पर संदेह न कर रहे हों, माँ के दिल को फिर ठेस लगती है और वह कराह उठती है–

“यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोऊँ।”

इससे बढ़कर हृदय-विदारक शपथ और क्या हो सकती है? कौन ऐसा पाषाण-हृदय होगा, जिसे इन शब्दों पर विश्वास न आ जाए। पुत्र भले ही माँ की जितनी चाहे अवहेलना करे, भर्त्सना करे; लेकिन माँ तो माँ ही है। कैकेयी सब कुछ सहन कर सकती है; लेकिन भरत का मातृपद नहीं त्याग सकती–

“थूके मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई कह सके, कहे, क्यों चूके?
छीने न मातृपद किंतु भरत का मुझसे,
हे राम दुहाई करूँ और क्या तुझसे?”

इस कथन में कितनी पीड़ा है! कितनी वेदना है!! इसे सुनते ही आँखों में आँसू आ जाते हैं; तो जिस हृदय से यह निकला होगा, उसकी क्या दशा होगी?

आगे चलकर वह कहती है कि कोई बात नहीं, लोग बेशक मुझे धिक्कारें, भला-बुरा कहें। मुझे तो इसी में संतोष है कि–‘मैं रहूँ पंकिला, पद्मकोष है मेरा।’

अपने भविष्य को वह स्वयं अपनी आँखों से देख लेती है, इसीलिए कहती है–

“युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी।
रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी॥
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा।
धिक्कार उसे था महास्वार्थ ने घेरा॥”

लेकिन धन्य है गुप्त जी की लेखनी, जिसने सदा के लिए दुखिया कैकेयी को ‘धिक्कार’ से मुक्त कर दिया। अब तो हर व्यक्ति को चित्रकूट की सभा के साथ चिल्लाना पड़ता है–

“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई
जिस जननी ने जना भरत-सा भाई।”


Image: Ramayana
Image Source: WikiArt
Artist: Nicholas Roerich
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