कवि जी

कवि जी

विधना की
सृष्टि में,
खोए-से
हारे-से
प्यारे,
बेचारे-से
भाव के अभाव के
बीच में
निशंकु-से
लहराते कवि जी!
फहराते कवि जी!

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घुँघराले
कजराले
बालों के लच्छे!
बैठ गए, ऐंठ गए
जैसे हों क्षुधा-क्लांत
साँपों के बच्चे!
बैलों की आँखों-सी
आँखें बड़ी-बड़ी,
निर्निमेष शून्य में
देखतीं घड़ी-घड़ी।
और अंग? मांस-हीन,
किंतु, मधुर, शुभ दर्शन!
रक्तहीन,
किंतु, जहाँ
जीवित है
आकर्षण!
ऐसे हैं कवि जी!
मूर्तिमान छवि जी!

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पीते है बचपन से
आँसू का खारा जल
खाते हैं बचपन से
हँस-हँस के
गम ही गम!
आँखों में
सरिताएँ,
प्राणों में मरुथल रे
बारहों महीने तो
रहता है
कम-से-कम!
साधक ये कवि जी हैं!
आराधक कवि जी है!

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बाहर है
आग लगी,
भीतर हैं
झाँकते!
काया की सुंदरता
छाया से
आँकते!
सावन में
गाते हैं
दीपक का
राग!
सूने शमशानों में
रचते हैं
फाग!
रण के
मैदानों में
फूँक रहे
बाँसुरी!
नैवी विचारों में
कर्म कहाँ
आसुरी!!
धरती के मित्र
नहीं!
मनु के ये
पुत्र
नहीं!
आए आकाश से
सीधे
जमीन पर!
हँसते हैं,
रोते हैं,
सब कुछ ये
बीन बीन पर!
मानव की संज्ञा से
मुक्त करो
कवि जी को!
मुक्त करो छवि जी को!
और कहो जो कुछ तुम
मुझको है
मान्य सभी–
ऐसे हैं कवि जी!
वैसे हैं कवि जी!
ऐसे हैं कवि जी!
वैसे हैं कवि जी!


Image: Persian Miniature
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Hossein Behzad
Image in Public Domain