किरण और कुटीर

किरण और कुटीर

सारे जीवन की कलाराधना मेरी,
विज्ञान, ज्ञान का सब तन्मय अन्वेषण
सब राजनीति की, अर्थशास्त्र की सेवा
उस क्षण की स्वागत-आशा पर है अर्पण,

जिस क्षण में यह शोषित, वंचित, श्रमजीवी
खोलेगा अपने नयन, न्याय पावेगा;
पशुवत् जीवन ठुकराकर दृढ़ चरणों से
अधिकार मनुज जीवन का अपनावेगा।

ऊपर के स्तर पर बैठ हँसो, तुम मुझपर,
मैं भू पर इसके साथ खड़ा हूँ हर्षित,
इसकी श्रमहुँकारों की लय पर मेरा
संगीत, काव्य होता सार्थक, परिमार्जित।

जो हृदयवान हैं, हृदयहीन इस युग में,
उनको मानवता का आकर्षक इंगित
है बुला रहा इन खेतों, श्रमकेंद्रों में,
जिनमें है जुटा हुआ श्रमजीवी शोषित।

इसको अपनाने, इसे धैर्य देने में
जो सुख है इसकी संगति, प्रोत्साहन में,
उसका शतांश भी नहीं पलायनवादी
साहित्यकलाविद् के सुखमय जीवन में।

जो धन, सत्ता, वैभव, यश से मतवाले,
उनको श्रमजीवी का तप द्रवित न करता,
वे निष्ठुर भरते हैं भांडार विभव के,
यह शोषित जब आहें अभाव में भरता।

नववर्षागम पर जब खेतों के स्वामी
उन्माद हर्ष का उर में अनुभव करते,
इस भूमि-श्रमिक की पत्नी की आँखों से
तब विवश व्यथा के आँसू झर-झर करते।

अपने पति से वह खिन्न कंठ से कहती :
“दे चुके किराया, अब तक, किंतु, हमारी
कुटिया का मालिक ने न सुधार कराया,
वर्षा आई, अब यह टपकेगी सारी।

सारी दुनिया वर्षा में हर्ष मनाती,
मेरी आँखों में आँसू भर-भर आते,
अबकी वर्षा में टिक न सकेगी कुटिया,
हम अपने बच्चों की हैं खैर मनाते।

कुटिया ही क्यों, उस बड़े खेत को देखो,
उसमें खपते सब जीवन गया हमारा।
वह आदिकाल से अब तक रहा पराया,
कुछ पैसों पर बिक गया परिश्रम सारा।

वर्षा आती है, मालिक खुशी मनाएँ,
बरसेगा उनके इन खेतों में सोना,
हम किस आशा से हों प्रसन्न वर्षा से,
है लिखा हमारे जीवन में तो रोना।”

सुन पत्नी की यह मर्म-व्यथा की वाणी,
श्रमजीवी का संतप्त हृदय हिल जाता,
पर, वह संयम का धनी धैर्य धारण कर
इन शब्दों में पत्नी को धैर्य बँधता :–

“यों मत दिल तोड़ो अपना, धैर्य रखो तुम,
आशा जीवन की साँस, गरीबों का बल,
आएगा कोई ऐसा दिन जीवन में
जब हम कभी भी पाएँगे अपने श्रम का फल।

मेरी पगभर भी भूमि नहीं है जग में,
मेरा अपना तो है केवल श्रम ही श्रम,
फिर भी, है सबकी भाँति हर्ष मुझको भी,
कैसा सुंदर नभ में पहला मेघागम!

है दान प्रकृति का यह बादल समदर्शी,
इसके स्वागत में हम भी हृदय बिछावें,
धरती इससे जो हरीभरी होती है,
उस शोभा से हम भी निज नयन जुड़ावें!”

उत्तर में गुंजित श्रमिक-प्रिया की वाणी :–
“औरों की यह धरती, बादल भी सुंदर,
कुटिया भी सुंदर और कारखाने भी,
सब सुंदर, हम फूलें इस सुंदरता पर

घर बैठे कोई इनसे लाभ उठावे,
हम अन्न-वस्त्र को तरस-तरस मर जावें;
सौंदर्यदृष्टि यह छोड़ो, अब तो प्रियतम,
आओ, हम उठकर नया समाज बनावें।

सुंदर तो होगा वह समाज, वह जीवन,
जिसमें समान सुविधा पावे हर मानव,
अपना घर, औषधि, अन्न, वस्त्र पाते को
यों रोना और तरसना बने असंभव!

ऐसा युग लाने के प्रयास में अब हम
दोनों लग जावें, करें समर्पित जीवन
उनको, जो नवनिर्माण पंथ पर करते
हैं हर शोषित श्रमजीवी का आवाहन।

उस शुभ प्रयास में हम जो सुख पाएँगे,
फीका होगा उसके आगे यह सब सुख,
जो बादल और चाँदनी हमको देते,
आओ, हम दोनों हों उस पथ पर उन्मुख।”

संवाद बताता यह अब पहुँचीं किरणें,
कुटियों में भी नव युग-प्रकाश की उज्ज्वल,
जो युग-युग से शोषण में पिसते आए,
वे प्राप्त कर रहे नई दृष्टि, अभिनव बल।

है कलाकार भी पंथ सुन रहा अपना,
प्रेरणा उसे देगा सुख-दुख जन-मन का,
रस प्राप्त करेगा उसी भावना में वह,
जिसमें स्पंदन पावेगा वह जीवन का।


Image: Farmer to work
Image Source: WikiArt
Artist: Georges Seurat
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