कोई भी आह किसी की न निर्वचन जाती

कोई भी आह किसी की न निर्वचन जाती

कोई भी आह किसी की न निर्वचन जाती
अगर वे होते तो उनकी दमन से ठन जाती

उमड़ के भीड़ ने बर्बाद कर दिया नक्शा
सब इक कतार में चलते तो राह बन जाती

सभासदन की अगर खिड़कियाँ खुली रखते
हवाएँ, आतीं न आतीं, मगर घुटन जाती

शुआ ए इश्क मुड़ी पैरहन से टकराकर
दिखी हवस की सियाही बदन-बदन जाती

न मेघ है न कोई पेड़ काश तुम होते
उस आसमानी दुपट्टे से धूप छन जाती

खयाल उभरते ही बाँधा गजल के मिसरों में
सजन से नैन मिलाकर कहाँ दुल्हन जाती

किसी भी एक के करने से फर्क क्या होगा
जो हम न सोचते ऐसा तो बात बन जाती


Image: The Courtyard of Petrovsky Palace
Image Source: WikiArt
Artist: Ilya Repin
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