कुछ रात गए, कुछ रात रहे
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- 1 April, 1951
कुछ रात गए, कुछ रात रहे
कुछ रात गए, कुछ रात रहे जब सहसा नींद उचट जाती
तम की काली छलनाओं में झिलमिल करते नभ के तारे
फिर पीपल बरगद के तरु भी हुँकृत करते अपने नारे
चेतन अस्थिर की कौन कहे–जब पाषाणों में भी धड़कन
अपने प्राणों के क्रंदन में खामोश पड़े–भूले चिंतन
दिनभर का नीरस श्रमजीवी मैं कार्यभार से थक सोया
यों जीवन ज्वाला में अकुला कुछ बार दिवा में भी रोया
पर जान न पाता कैसे तुम नजदीक तृषित के आ जातीं
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जती
2
कुछ सूखी कुछ गीली पलकें अवशेष यही अब हरियाली
ऐसे ही दूर प्रतीची में कुछ दिन ढलते भीगी लाली
पर देय कहाँ एकाकी को यह एक अचीन्हा सुख विस्मय
नव ऋतु-सी आते-जाते ही तुम सहसा बन जातीं संशय
तुम में भी तो चीत्कार भरा–तुम भी तो हो तीखी नारी
क्यों सजनी रजनी के मन में तुम बोने आईं चिनगारी
मुझको क्या–मुद्दत से मेरी ऐसी ही बिद्ध रही छाती
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जाती
3
मैं बंदी! चिर व्याकुल हूँ मैं, मैं चीख सिहर उठता उस क्षण
आँखों के रूखे मेघ उमड़ करते अभिलाषा का तर्पण
मुराझाए फूलों में मेरे कोकिल का कंठ खुला जाता
बीते दिवसों का अपराधी मैं कितनी प्यास जगा लाता
ऐसे ही एक दिवस जग कर देखूँगा बीत गया जीवन
कुछ पास लड़कपन की भूलें–कुछ पास जवानी का क्रंदन
पर पा न सका जो शेष ही प्राणों का धन, मन की थाती
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जाती
4
सम्मुख शेफाली के नीचे फूलों से भर जाती धरती
शशि-किरणें चूम चली जातीं कुछ हँसती कुछ आहें भरती
है तृप्ति कहाँ–कहता जैसे सन-सन स्वर में उन्मत्त पवन
चीत्कार कपोतों का वन में झंकृत करता रजनी निर्जन
क्षण भर की ममता से वंचित मैं देख चुका मानव का मन
जब सूनी रातों में करता भूखा प्यासा तन मन क्रंदन
जब अपनी मूक तृषित सत्ता अपने क्रंदन से भय खाती
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जाती
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युग-युग से दग्ध रहे पीड़ित विद्रोही प्राण अभावों से
कब तृप्ति इन्हें मिलने पाई सूने अंतर के घावों से
सुख और इन्हें क्या–झपकी में यदि कोई पास तनिक आए
जीवित कब्रों की जड़ता में मीठी-सी आँच उड़ा जाए
फिर जागृति दर्द नया कर दे–मैंने इसको सुख ही माना
अंतर्ज्वाला से प्यार बार जब पीर उठी सूझा गाना
कुछ दिन बीते क्षण भर यों ही प्रेमी को राहत हो जाती
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जाती
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जीवन का यह मस्ती का पल अमरत्व अगर बनकर अता
क्यों होता मेरा कंठ मधुर–क्यों मैं इतना मीठा गाता
संतप्त पुकारों में मेरी कैसे संगीत मुखर होता
यदि एक मनोरम सपने में रह जाता सारी निशि सोता
चिर तृष्णा में प्यासे रहना मानवता का संदेश यहाँ
अपनी सुलगाई ज्वाला में आजीवन जलना शेष यहाँ
इस आकांक्षा के ऊसर में तुम कैसे पास चली आतीं
कुछ रात गए, कुछ रात रहे, जब सहसा नींद उचट जाती
Image Source: WikiArt
Artist: Raja Ravi Varma
Image in Public Domain