मधु-वितरण

मधु-वितरण

ओ मधु-नयने!
जागो-जागो अंत:शयने! ओ मधु-नयने!
तजकर नीरवता की करवट स्वर को पर दो गोपन-वयने!
ओ मधु-नयने!

नभ के नीले सागर में तम जैसे घुल जाता मौन स्वयम,
यह चंद्र-विभा भी वैसे ही घुलती जाती धर रूप परम।
दाहक सुधि में जलते तारे गलकर शीतल हिम-बिंदु बने,
अपनी-अपनी सीमा में ही सस्मित कुंकुम के सिंधु बने।

अज्ञात परस से प्राणों को कुछ चिरनूतन संदेश मिला;
जागो जीवन की सिद्धि-सुरभि! ओ मलयानिल-अयने!
ओ मधु-नयने!

ओ री सुषमा की नीरव निधि! ओ री निद्रित वासंती!
ओ चित्र-लिखित सस्पंद सहज मोहिनी-सरित रसवंती!
परिधान शिथिल यह अस्त-व्यस्त कुहरे-सा ढीला-ढीला,
छिपता मुख अंचल में खुल-खुल, तंद्रा में भी शरमीला।
ओ री साकार मधुरिमे! तुम परछाईं दिव्य छटा की,
तुम स्वप्न-लीन ओ तडितबाल सतरंगी विश्व-घटा की।
उन्मद रहस्य की श्री निश्चल कुंचित मेचक अलकों में!
आनंद भरा अनुराग बंद कब से बेसुध पलकों में!
भौंहों में यह निष्कंप पड़ी भंगिमा सघन करुणा की,
धूमिल हो चली कपोलों पर अंकित ममता की झाँकी!
अधरों की चुप रेखाओं में है बँधी मर्म की वाणी,
बंकिम ग्रीवा में चिर निषेध बन गई नियति कल्याणी!
मुड़ गईं भुजाओं में जैसे उन्मुक्त उदार उमंगें,–
उठ-उठ वक्षों में टूट रहीं आशा-विश्वास-तरंगें!
कटि में गिरिजा का नृत्य-लास जैसे मूर्च्छित हो सोया,
चरणों में गति का सम अविषम जैसे जड़ता में खोया!
ओ सुप्त मर्म शोभा अविचल भूले-भटके जीवन की।
तुम देख रहीं नव स्वप्न-कथा यह गुप्त-ज्ञान भू-मन की।

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[ज्वाला…ज्वाला…तरल अनल की ज्वाला!
नाच रही चल दिशा-चक्र-सी चल लपटों की माला!
फहराया वह वह्नि-विभा का अंचल मेरा,
विद्युत् की झालरें झमक झलकीं अंबर में,–
एकाकार अपार अग्नि-आलोक-लहरियाँ
मेरे शक्ति-नृत्य की पग-ध्वनियों-सी फैलीं–
तनिक-तनिक थमकर बँधपाईं धीरे-धीरे–
कितने काल-खंड की छायाओं से कढ़कर!

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“उमड़-घुमड़ कर घिरे मेघ घनघोर गरजते,
मेरे अट्टहास की यह झंझाएँ छूटीं;
मुक्त हास की घहर छहरती बौछारों से
प्लावित पहली बार ज्वलित वसुधा का जीवन!

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“यह वसुंधरा के उर्मिल प्राणों का नर्त्तन,–
धीर, गंभीर, गहन तालों पर, लय-निपात पर
मिटते-बनते गिरि, वन, सिंधु, नदी, मरु, समतल;
मैं अदृश्य प्रेरणा-वायु, यह दृश्य-प्रकंपन!

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“मैं जाग्रत सब ओर तरंगमयी गति-यति में,
मैं अंवित सब ओर विषमता-पूरित मति में,
मैं उन्मद सब ओर प्रेरणाओं की रति में,
मैं आनंद अथोर अगम जड़ता में, चिति में!

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“दिशि-पल के उर में पुलकाकुल मैं मर्मश्री,
मैं स्वयंभवा, सहज विषम की हरती विश्री,
मैं बिखरी जड़ के चेतन नयनों से छनकर–
संसृति-पथ पर चिर निर्जर सुंदरता बनकर।
उर की सरस उमंग, रहस आभा प्राणों की,–
शक्ति चकित मेधा की, नव गति अभियानों की,–
मैं, केवल मैं मर्ममयी, जीवन की शोभा,–
मैं सुगंध निर्बंध स्वर्ग के वरदानों की!

“मेरी युग-युग की अभिलाषाओं के अंकुर
शिखा-शस्य-से दीपित, रंग-भरे गंधातुर!
एक चिरंतन साध : पूर्ण अपना अभिव्यंजन,–
व्यक्ति-चेतना के नयनों में मधु का अंजन!
दृष्टि-दृष्टि में निज लघु सीमाओं का लंघन,–
तृषा-तृषा पर श्रेय तृप्ति का मादक बंधन!
एक चिरंतन साध–ज्वाल आभा बन जाए!
मेरा जन्म-प्रदाह मंदिर शोभा बन जाए!

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“पर, मनुष्यता बड़ी अभागिनी,
ज्वाला को मानती प्रकाश की सुहागिनी!
आदिम भय का प्रभाव भरता यह चिर स्वभाव,–
ज्वलित भाव या अभाव, ज्ववित स्नेह या दुराव,
सत्य या असत्य घोर ज्वलित प्रखर ओर-छोर,
सब निजत्व में अधीर, एकदिक् हृदय-शरीर,
पर के उर से अजान अपना स्वर कटु वितान,
कंठ-कंठ अर्चिं-माल, जीवन यह ज्वाल-ज्वाल,
दिशि-दिशि में नाच रही गरल-धूम नागिनी।
यह मनुष्यता बड़ी अभागिनी!

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जग-जीवन के अग्नि-कुंड से कालकूट की गंध उमड़कर छाई
बहिरंतर की कटुताओं से निक्त हो चली पछवाई-पुरवाई!
मेरा स्वप्न-विधूर्णिंत मस्तक झुका, और सुधि छूटी,
गिरी विमूर्च्छिंत नियति-तल्प पर मैं विद्युत-सी टूटी,
ज्वाला…ज्वाला…तरल अनल की ज्वाला!
नाच रही फिर दिशा-चक्र-सी
चल लपटों की माला!”]
मूर्च्छिंते! तुम्हारे निद्रित-से नयनों में
यह स्वप्न-कथा यह मर्म-व्यथा धरती की!
पर, अँगड़ाई ले रही पुन: साँसों में,–
अब मलय-वायु दीर्घायु दिव्य जगती की!
उत्तप्त तिमिर के पट से बाहर आकर
हरियाली की परियाँ अगणित घिर आईं!
लो दुख की शंकित नीरवता भी टूटी
अरुणाभ स्वरों में रागिनियाँ लहराईं!
जागो रस-मानस की हंसिनि! सुख-दुख-मुक्ता-चयने!
ओ मधु-नयने!
ओ मधु-नयने!

जागो-जागो मर्म-चारिणी, पाषाणों के पाश में,
सुमनों का संगीत भरो हे! लोहे के इतिहास में!
कण-कण को चेतन सौरभ का रंग-भरा आकाश दो,
क्षण-क्षण को निस्सीम अवधिका उर-व्यापी विश्वास दो!
भाव-भाव को समरसता का नव अनुभूति-प्रकाश दो,
वस्तु-वस्तु को अंर्तवासी प्राणों का मधुमास दो!
तन-तन को दो मनोमिलन की घनछाया सतरंगिनी,
अभियमयी आँखें अंबर हों, विहरे ज्योति-विहंगिनी!
भूख-काम के चिर कुहरे में वितरो अरुण पराग, री!
उर के व्यापक सुर से फूटे जीवन भैरव-राग, री!
हृदय-सिंधु प्यासा यह, वितरो मधु-राका की चाँदनी,
रहस विभा-छाया से कुसुमित कूलों की छवि मादिनी!
नंगी साँसों को सुधावरण दो इंदु-किरण-वयने!
ओ मधु-नयने!
ओ मधु नयने!


Original Image: Red Water Lily of Southern India
Image Source: WikiArt
Artist: Marianne North
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