मैं वनमाली अपने वन का!
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
मैं वनमाली अपने वन का!
मैं वनमाली अपने वन का!
मेरी साँस-साँस मलयानिल,
जिसमें सौरभ सुमन-सुमन का!
कहो, कहाँ से हो तुम आए,
खोए-खोए औ भरमाए;
ऐसा कौन सँदेशा लाए–
जिसमें हर्ष विषाद न मन का!
मैं वनमाली अपने वन का।
देवदूत के बोल न ऐसे
तर्क तुम्हारे कैसे-कैसे!
छन-छन सूख रहा है वैसे–
सलिल नहीं यह सावन – घन का!
मैं वनमाली अपने वन का।
तुम गरजो-तरजो, यदि भाए,
चमको, यदि निज रूप सुहाए,
मेरे उर में सुर भर जाए–
मैं मानी उस चरण – रणन का!
मैं वनमाली अपने वन का।
सत्य नहीं उतना निष्ठुर है,
व्यर्थ तुम्हारा नीरस सुर है,
सुख-संसार भरा सुर-पुर है,
मानव भव ही दुख क्रंदन का?
मैं वनमाली अपने वन का।
है अस्तित्व सभी का अपना
नयन-नयन में जीवित सपना
क्या मिट्टी की महिमा जपना,
अर्थ नहीं कम अगम गगन का।
मैं वनमाली अपने वन का।
अपना भाव आप तुम खोलो
यह सुवर्ण, वह गुंजा, बोलो
तुम झुक-झुक जीने को तोलो,
मोल जानता मैं जीवन का।
मैं वनमाली अपने वन का।
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma