मेघ-गीत

मेघ-गीत

[संकल्प]

चले हैं भुवन की जलन हम मिटाने,
मरण में अमर दिव्य जीवन जगाने।
जगाने चलें हैं नए अँकुरों को,
चराचर जगत् को अमृत से पटाने।

[विकल्प]

न जाओ उधर वीर ! बल टूटते हैं,
उधर प्राणहर अग्नि-शर छूटते हैं,
बड़ी क्रूरता से रसा के रसों को,
उधर चंड मार्त्तंड-कर लूटते हैं।
किया जा रहा एक से एक भीषण
महानाश के ज्वाल का जाल-ग्रंथन
मथा जा रहा अम्बुनिधि ही न केवल,
वहाँ हो रहा पूर्ण ब्रम्हाण्ड-मंथन।
तपी दृष्टि, आलोक तम बन रहे हैं,
तपे वात उनचास यम बन रहे हैं।
तपा थल,तपा जल,तपा व्योमतल भी
तपे पञ्च परमाणु बम बन रहे हैं।
महाकाल के रक्त-रञ्जित चरण से
मनुजता दबी चीखती तीव्र व्रण से।
न दिग्दंतियों से सँभलती दिशाएँ,
खिसकने लगी है धरा शेष-फण से।

[संकल्प]

चले हैं भुवन की जलन हम मिटाने,
उमड़ते-घुमड़ते सभी भय भगाने।
बहाने चले हम रुकी स्नेह-धारा,
चले दहलते दिग्गजों को दृढ़ाने।
हमारी धरा को तपा रवि-करों से
लिया लूट रस तृण-लता-तरुवरों से।
रचा इंद्र ने स्वर्ग इन शोषणों से,
सजा सैन्य अपना हमीं जलधरों से।
हमीं से कराई हमारी धरा पर
उपल-वृष्टि, अतिवृष्टि विश्वम्भरा पर।
गगन में चढ़ाकर हमें यों भ्रमाया
कि चातक हमारे तरसते गए मर।
व अपनी धरा का हमें ध्यान आया,
कड़क कर कुलिश क्रूर उसपर चलया।
गरजकर, कँपाकर, चरजकर डराया,
वहाँ और विष विषधरों का बढ़ाया।
मगर आज हमने नई दृष्टि पाई,
जमाना नया, हाँ नई सृष्टि पाई।
नई कृषटि पाई मृदुल आज हमसे
हमारी धरा ने कनक-वृष्टि पाई।
हमारी अवनि, यह नई बात जानी,
हमारे हैं सागर, हमारा है पानी।
हमीं राम, घनश्याम अपनी इला के,
हमारी रवानी, हमारी जवानी!
हमारी महत्ता सभी ने सराही!
पुरी एक अलका, हमीं एक राही!
सभी शापितों-तापितों के लिए हम
बने स्नेह के दूत संदेशवाही।
चला झूमता दल हमारा गगन में,
छिपा जुल्म का सूर्य त्योंही गहन में।
भला ताप-संताप से क्यों डरे हम
हुआ जन्म ही जब हमारा तपन में?
हुआ नित्य करता यहाँ जीवनव्यय,
मगर हम अजर हैं, अमर और अव्यय!
कभी व्योमतल पर, कभी भूमितल पर,
रहेंगे किसी रूप में किंतु निश्चय।
चलेगा यहाँ वश न अंतक अधम का,
मरण बन गया मूल जीवन-जनम का।
नियम तोड़ हमने दिया जबकि यम का,
हमें भय कहाँ तुच्छ परमाणु बम का।
कहाँ कुछ रहा भेद जीवन-मरण में,
तडित की तड़प, दाह अंत:करण में।
खपा दें ज्वालत विश्व-हित तत्त्व सारा,
यही साधना-साध प्रत्येक क्षण में।
जहाँ सत्त्व का हो हरण और शोषण
वहाँ बन चलें हम भरण और पोषण।
हमारी मही यह हरी, पय-भरी हो,
यही व्रत हमारा, यही प्राण का पण।
चले अग्नि-शर पर विकल हो न भूतल,
सुजल हो, सुफल हो, सतत शस्य श्यामल
बुझा कब अनल है अनिल वा अनल से?
हमें सिर्फ पानी, हमें त्याग का बल!
लिए जल करुण, आत्म-बलिदान का बल
धरा को सुधा से पटाने पड़े चल।
सजे इंद्र रवि-ताप या वज्र का बल,
हमारा तपोबल रहे दीप्त केवल!
चले दल न यह इंद्र का बल बढ़ाने,
चले चातकों की तृषा हम बुझाने।
फलाने चले शुक्ति में आज मुक्ता,
चले हम भुवन एक अभिनव बसाने।
चले हैं भुवन की जलन हम मिटाने,
मरण में अमर दिव्य-जीवन जगाने।


Original Image: Rainy Weather at Hampton Court
Image Source: WikiArt
Artist: Alfred William Finch
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