मोह-बंधन
- 1 August, 1953
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- 1 August, 1953
मोह-बंधन
प्रिये, जब पवन सूने में तुम्हारी सुधि जगा जाता
उसी क्षण घन उमड़ नभ में मुझे बेहद रुला जाता
शपथ खाकर कहूँ तुझसे अरी! मैंने न जाना था
कि तेरे एक नजरंऽदाज़ में ऐसा निशाना था।
असर ऐसा हुआ बेपीर! जो अब तक न सम्हला हूँ
किसी के हास से मेरा कलेजा काँप है जाता
प्रिये, जब पवन सूने में तुम्हारी सुधि जगा जाता
तुम्हारी धवलिमा इन कुमुद कुंदों में बिहँसती है।
तुम्हारी अरुणिमा प्रत्यूष आँचल में लहकती है।
दृगज्जन का हलाहल पी बलाहक दल उमड़ उट्ठा
घुमड़ कर पागलों-सा दौड़ता औ’ झूमता जाता
प्रिये, ऐसा मुझे लगता, पवन जब सुधि जगा जाता।
तुम्हारी कंठ-ध्वनि के ही लिए नभ रौंद आता हूँ
तुम्हारे रूप के वास्ते जलन हिय में सँजोता हूँ।
तुम्हारी गंध का भिक्षक धरा की धूलि धुनता है
तुम्हारा अधर-रसपायी धनों को हेरता रहता
तुम्हारी एक सुधि पाकर, कहूँ, क्या, क्या न मैं करता
अरी बेदर्द तुझको भी कभी कुछ याद आती है
शलभ-हिय की जलन में वह तुम्हारी प्यास पलती है।
अरी, जादूगरी! मैं तो तुम्हारे पाद-पायल की
रुनुक्-झुन्-झुन् की आहट पर विवश मन को लिए आता
सजनि, यह हाल होता है, पवन जब सुधि जगा जाता।
उसी क्षण घन उमड़ नभ में मुझे बेहद रुला जाता
Original Image: Portrait of Artists Wife
Image Source: WikiArt
Artist: Konstantin Makovsky
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork