प्रणय-पत्रिका
- 1 January, 1954
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- 1 January, 1954
प्रणय-पत्रिका
मैं प्रकृति-प्राकृत जनों का मान औ’ गुनगान करना चाहता हूँ।
तुम उठे ऊँचे यहाँ तक स्वर्ग को ले
गोद में तुमने खेलाया,
किंतु क्या यह सच नहीं, तुमने घरणि की
भावनाओं को भुलाया?
और वाणी को गए सौगंध देकर
एक हरि का यश बखाने,
सिर धुने, पछताय, अपना भाग्य कोसे
दूसरा यदि नाम जाने;
बोलने को आज व्याकुल हो रही है
भूमि की सोई हुई तह
यदि गिरा गिरती नहीं है आज नीचे
व्योम में खो जाएगी वह,
निम्न कुछ ऐसा नहीं जिसको छुए वह
औ’ न ऊपर को उठाए,
मैं प्रकृति-प्राकृत जनों का मान औ’ गुनगान करना चाहता हूँ।
स्वर्ग सब आनंद-गुण का धाम उसका
कुछ नहीं है ज्ञान मुझको,
किंतु जो संघर्ष में लिपटी घरणि
उसपर बड़ा अभिमान मुझको
धन्य तुम हो जो तुम्हें भगवान अपने
साथ में बाँधे हुए थे,
किंतु सोते, जागते कब छोड़ता है
छोहमय इंसान मुझको?
और जो उसके हिए में हलचलें हैं,
कौन उनको जानता है?
जो नहीं इंसान को पहचानता
भगवान को पहचानता है?
मानवों का दु:ख, सुख, बल, भीति जाने,
प्रीति जाने, मुँह न खोले,
मैं किसी युग में किसी अपराध का अब दंड भरना चाहता हूँ।
मैं प्रकृति-प्राकृत जनों का मान औ’ गुनगान करना चाहता हूँ।
व्योम क्या देखा कि तुमने भूमि पर से
आँख ही अपनी हटा ली
मृत्तिका के पुत्र की, पर, चाहिए
होनी नहीं ऐसी प्रणाली;
एक फौआरा धरा को छोड़ नभ छू
फिर धरा को लौट आता,
वह कभी आकाश के ऊपर नहीं
आवास अपना है बनाता;
जो न ऊपर चढ़ सके जलधार ऐसी
काम की मेरे नहीं है,
किंतु ऊपर खो गई जो सर्वदा को
वंचिता उससे मही है;
ऊर्ध्व करता भूमि की आशा, अधोमुख
व्योम का आशीष करता,
मैं अवनि-अंबर मिलाता आज चढ़-चढ़कर उतरना चाहता हूँ।
मैं प्रकृति-प्राकृत जनों का मान औ’ गुनगान करना चाहता हूँ।
-क्रेंब्रिज
Image: An Indian poet seated in a cherry blossom garden
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain