प्रत्यागत
- 1 November, 1951
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- 1 November, 1951
प्रत्यागत
नक्षत्र-दीप तुम गौरवमय बन जगो, जलो
आकाश-रंध्र में जंलमुक् प्रात: राग बनो
मानव-कवि व्यथामयी रजनी से निकल चला
जग-कर्म-व्योम में रश्मि-पिंड बन प्रखर-अमर
तरु-अवलि, त्रिपथगामिनी, क्या पहचान रहीं
उस युग में कितनी बार तुम्हारे निकट गया
प्राणों की करुण-कथा कहने; तुम मौन रहीं
ज्यों हृदय हीन हो चिर अचेत गिरि-शिलाखंड
मैं मोहावृत्त हो बार-बार, तुम याद करो,
मधुमय रजनी, आया था पाने स्नेह मूक
–जैसे धारा दौड़ती सिंधु-तट-भुजा ओर
–ज्यों खंड-मेम उड़ते मिलने बादल-दल से
पर मौन वही, चिर घृणा वही, अपमान वही
तुम से पाया, पथ-संगी जो देते जग में
तुम हृदयहीन कितनी, श्यामा! अपनापन क्या
इतना अमूल्य दुर्लभ-सा है जग-जीवन में
अव्यक्त व्यथा के वे दंशन जब व्यक्त हुए
बुदबुद-से जो उठते अगणित जल-शिखरों पर
मैं सिहरा एकाकी सूने जीवन-मग में
–चिर एकाकी जैसे मरु में भटका राही
–उस मरु में जहाँ आँधियाँ हों, हो शून्य दिशा,
रोती पिशाचिनी-सी प्रतिपल भीमा रजनी,
नक्षत्र झाँकते मोंखों से ज्यों भीत नयन,
नि:संग बना मैं मर्म-व्यथा से चीख उठा
सहसा आत्मा के व्योम बीच तम का सागर
फैला जैसे जग में आता निशीथ का तम
–मरु में चित्रांकन को भर देती ज्यों झंझा,
–निद्रा जैसे पी जाती तन-चेतना सभी
मैं वैसे ही हो गया विवश ओ काल प्रबल,
ओ क्रूर विश्व, ओ कटु जीवन, कल्पना करो
तब से पंखों को खोल वर्ष सब उड़े चले
जैसे उड़ते सागर-पंछी; मैं बँधा रहा
मैंने चाहा था, पथिकों की कंथा दूँ भर
गीतों से, जय के सपनों से, शाश्वत बल से;
फूँकूँ मुरली में स्वर, मानव-मन के वन में
मकरंद-सना श्लथ चरण तरुण माधव आवे
मैंने चाहा, निज कृष्ण-चरण घर दबा सकूँ
अपमान-घृणा-कालीय नाग के विषफन को
मेरी साधना अमर मनु-सी बन करे सृजन
जब मानव-आत्मा में युगांत जल-प्रलय मचे
जीवन के पतझड़ में उन्मन तरु-सा, मानव
सब आशाएँ खो जब वह संज्ञा-हीन बने
मैंने चाहा, उस शुष्क तने में अमृत बनूँ
जो पात-पात को हरित करे, नव जीवन दे
पर वर्ष घड़ी, पल निकले, मैं शृंखला-बद्ध,
चिर कर्महीन बन मोह-निशा में खोया-सा
दु:स्वप्न क्रूर वे, डँसते मेरे तन-मन को;
मैं सहम-सिकुड़ कर देख रहा जीवन-धारा
कितने माँझी नौका लेकर बढ़ गए वहाँ
रे, शाश्वत गीत-कथा कहते, सुख-दु:ख लेकर
मैं देख रहा हूँ उठती-गिरती लहरें ये
इंगित करतीं–जीवन गति है, तुम खड़े न हो
सहसा इस प्राण गुहा में अमर किरण कैसी!
मरुथल में किस पिक का वासंती स्वर आया!
सोई धारा को किस झंझा ने जगा दिया?
है किस सुदूर का आमंत्रण मन-प्राणों में
–पीले पत्ते को गिरा हरित होता कानन
–केंचुल को छोड़ सर्प जैसे जीवन पाता
आत्मा मोहांध निशा को छोड़ जगी वैसे
चिर विभा-गीत ले; पद-गति की अब ध्वनित कथा
मानव संघर्ष-सना लथपथ आँसू में है
अपने अबंध, पर, प्रतिपल बँधा-बँधा वह है
हे प्रकृतजयी तुम भीत न हो अपने भय से
तुम आरोही, ये पर्वत-शृंग झुके नीचे
निर्जन के तरु, उर्म्मिल सुरसरि, पहचानो तो
पैंतीस वर्ष की व्यथा भरा मानव काया
आई खोजने स्नेह-अपनापन फिर तट पर
ब्रह्मपूर्ण मर्म-अंगों पर स्नेह-परस पाने
Image: Fisherman on the Laita
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Serusier
Image in Public Domain