सच कहता हूँ
- 1 September, 1951
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- 1 September, 1951
सच कहता हूँ
तुम्हारी याद के उल्लास से मैं गीत रचता हूँ
तुम्हारे प्यारे के विश्वास से मैं गीत रचता हूँ
दिवा में प्यार को रचकर निशा मैं गुनगुनाता हूँ
तुम्हारे प्राण का मधु-स्वर जगत को मैं सुनाता हूँ
यही फिर छंद बजता है, यही फिर गीत बनता है
तुम्हारे अंक में सोकर जिसे मैं रोज गाता हूँ
मिलाता हूँ तुम्हारे कंठ से प्रिय, राग अपना भी
तुम्हारी साँस के वातास से मैं गीत रचता हूँ
सुनहले अक्षरों में प्रिय, तुम्हारा प्यार चमकेगा
तुम्हारा रूप छंदों में उठेगा और छलकेगा
मिलन के क्षण अमर होंगे, हजारों कंठ गाएँगे
खुशी की रोशनी होगी, अँधेरा और दमकेगा
पिलाता हूँ मधुर आसव अमित मुसकान में रंगकर
तुम्हारे प्राण के मधुहास से मैं गीत रचता हूँ
उठो, इस छंद को गाओ, यही कविता सुनाओ भी
उठो तन बाँह में बाँधों, गिरा जीवन उठाओ भी
अमिट आलोक मन को दो, अडिग विश्वास मन को दो
सुखी हो प्यार का मधु गीत मन में गुनगुनाओ भी
मुझे बेबस बना देती छलकती वासना मेरी
तुम्हारी वासना की प्यास से मैं गीत रचता हूँ
Image: Sunset at Etretat
Image Source: WikiArt
Artist: George Inness
Image in Public Domain