सपने की साँझ

सपने की साँझ

पथरीली दीवारों में मेरा दिल कैदी-सा बंद है!
पछवा के झोकों में बजता कोई नूपुर का छंद है!
दरवाजे का गंदा पर्दा उड़-उड़ जाता,
कोई टूट-टूटा सपना जुड़-जुड़ जाता!
वह सपना, जिसकी कड़ी-पड़ी छिप गई–
यवनिका में रसहीन सचाई की;
धर मलिन ओठ जीवन पर बिछी रुखाई की!
मैं वह सपना सारा का सारा भूल गया,
पर, जब-जब अंबर झलक पड़ा,–
कुछ तो नयनों में झूल गया!
पथरीली दीवारों का घर, गंदा पर्दा उड़ता जाता–
कोई टूटा टूटा सपना जुड़ता जाता!
मैं भूल गया जैसे सपना, था भूल गया सच भी वैसे;
हरियाली में तिरतीं नजरें पहुँचीं नभ में जैसे-तैसे!
रंगों के बादल चपल-चपल, बिखरे-बिखरे;
जैसे पराग के परी-महल निखरे-निखरे!
पावस की साँझ सलोनी, कैसी चितकबरी,–
नीलिमा गगन की,–गंध-बंध से परे रूप-रस की नगरी!
मन एक विहग-सा उड़ा, हुआ उल्लास मुखर–
जैसे इस तट से उस तट तक उड़कर जाते सारस का स्वर!
वे काले बादल घनीभूत–वह शिरस्त्राण जैसे विशाल,–
जिस पर उजली-पीली कलँगी,–
डर गया, देख मन का पंछी, कोमल शिशु-सा!
वे गरज उठे, जैसे गूँजा रण गान, हिले धरणी-अंबर!
वह लाल-लाल बादल का टुकड़ा झारदार–
सन्निकट चिता का चित्र एक!!
पर, एक तरफ वह नील सुराही बहुत बड़ी–
जिसमें चुप कोई लालपरी,–पीड़ा हरने को झाँक रही!
इस मर्म-शकुनि की हुई अलस उन्मन आँखें!
उस ओर, समुद्री परी एक, पहुँची ज्यों नंदन कानन में,–
किसलय-किसलय की सेज बिछाकर वह सोई!
फिर ये भेड़ों के झुंड चले धीरे-धीरे–
घायल गड़ेरिये के प्रति जैसे दिखा रहे भोली करुणा,–
वह गिरा शिथिल अस्ताचल पर!!!
वह एक नील-कज्जल रहस्यमय गहन गुहा–
उससे निकले वे बड़े-बड़े-से चमगादड़–
हैं लटक रहे पीली-पीली चट्टानों पर!
तिर रही ‘ह्वेल’ जैसे सपक्षहो, वायु-बीच!
है उधर धधकती हुई आग से घिरा किला!
वह एक गोल खाई जिसमें नि:शब्द आह!
उस पार बना नीरव प्रवेश के लिए–
शुभ्र स्फटिक-द्वार–जिसके भीतर छाया-प्रदेश,–
काषाय–वेश!!!
वे श्वेत वस्त्रमय देवदूत,–
वे सघन कोहरे से ऐसे निकले, जैसे–
श्रीमंत स्वर्णमय पद्म पुरुष,
जिनके चरणों से लिपटे झलमल इंद्रधनुष,
लौ मार रहे जो बार-बार पद चिह्नों पर!
पिघले मोती से नहा-नहा उग रहा चाँद;
उमड़े-उमड़े सब रंग गुलाबी झलक लिए;
दूधिया आवरण है जिन पर पड़ता जाता!
आ रही उधर से शतपंखी अप्सरा एक;
चूमा उसने सहसा मेरे मन के अज्ञात विहंगम को;–
सहसा पंछी निश्चेत हुआ गिर गया धूल की धरती पर,
सत्तू से भरी सड़क कोई; रिक्शावाला खींच रहा–
उसके गंदे कपड़े कैसे लथपथ हो रहे पसीने से?
आई उबकाई उसे, रहा मैं बैठा ही
उसने सारा का सारा खाया उगल दिया!
बँगले पर मुझे उतारा, फिर–
ले सका नहीं वह दो रुपए, बस चला गया!


Image: Night
Image Source: WikiArt
Artist: Edvard Munch
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