शरदागम

शरदागम

बदला बदला सा लगता है धरती-नभ का कोना-कोना।
हरि से घन, राधा-सी बिजली का अदृश्य है रास सलोना।
हाँ, भूली गोपी-सी बदली कभी सिसक कर रो जाती है।
मेरे सूने वृंदावन में प्राणों का रस भर जाती है।
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फूले पीत कपास खेत के खड़े हुए सोने में तुलने।
फूली ज्वार देख कर तत्पर हैं चाँदी के बटुए खुलने।
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भोर भला लगता है मुझ को कलरव जग में छा जाता है।
प्रिय-सा स्पर्श वायु का तन में मधु सिहरन भर भर जाता है।
शिशु-मन-सा निर्मल सर-पानी धीरे-धीरे लहराता है।
उछल-उछल आँखों-सी मछली का तिरना मन बहलाता है।
शेफाली-जूही की पलकें ललक चूम कर पवन खोलता।
ईर्ष्या से पीड़ित अलि आकर गुनगुन-सा कुछ सलज बोलता।
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क्या निदाघ-शिव से बिछुड़ी यह गौरी-सी दोपहरी तपती–
जिसकी उष्ण उसासों से है कलप तड़प उठती है धरती।
लाज भरी संध्या को लख कर नभ पर रंगीनी छा जाती।
रागी विहगों की टोली उड़ आँखों में उत्सव भर जाती।
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चंद्रमुखी निशि कुमुद-नयन में बुन कर मृदु सपनों की जाली–
निशि गंधा के सौरभ में ले साँसें अपनी मतवाली–
आ जाती है, भा जाती है क्यों उसकी स्वर्गिक छवि छन में?
किसकी बन अनुहार अनिदित, पुलक-राशि भरती तन-मन में?


Image: A Sand Binding Plant of Tropical Shores
Image Source: WikiArt
Artist: Marianne North
Image in Public Domain