स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!

स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!

मस्तक पर निदाघ का आतप
पग के नीचे ज्वलित मरुस्थल,
पथिक मध्य में तप्त-दग्ध
वेदना-विकल असहाय विचंचल!
स्नेहांचल विस्तीर्ण करो तुम, स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!

युग-युग का घन अंधकार
भर गया दृगों में, आत्मा में चिर,
भ्रम-विभ्रम की विपुल-राशि
हो गई मानसिक पथ पर संस्थिर,
गहन तमिस्र विदीर्ण करो तुम; गहन तमिस्र विदीर्ण करो!
स्नेहांचल विस्तीर्ण करो तुम; स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!

तीक्ष्ण कंटकों से ये शतदल–
चरण हुए रक्ताक्त जर्जरित,
तन में मन में तीव्र चुभन की
विषम व्यथा-अनुभूति विकंपित!
पथ को कुसुमास्तीर्ण करो तुम; पथ को कुसुमास्तीर्ण करो!
स्नेहांचल विस्तीर्ण करो तुम; स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!

नई प्रेरणा दो यात्रा-पथ
हो किंचित् अनुकूल औ’ सुलभ;
निज करुणा का हस्त बढ़ाओ
खुल जाए नि:श्रेयस का नभ!
दिव्यालोक प्रकीर्ण करो तुम; दिव्यालोक प्रकीर्ण करो!
स्नेहांचल विस्तीर्ण करो तुम; स्नेहांचल विस्तीर्ण करो!


Image: Pigeon on a Peach Branch
Image Source: WikiArt
Artist: Emperor Huizong
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