सुनी खाटें

सुनी खाटें

बरामदा में
वह जो खाट है
बाबू जी सोया करते थे,

और उसके बाजू की
कोठरी में जो खाट है
माँ सोया करती थी,

और एक सन्नाटा
फैला है आज दशकों का
ना माँ है और ना बाबू जी,

और जब मैं आता हूँ घर
वर्षों के अंतराल पर
तो सारा का सारा सन्नाटा
हहराता समा जाता है मुझमें
और दर्द देने लगती है
माँ और बाबूजी की सूनी खाटें,

खाटें वहीं की वहीं सूनी पड़ी हैं
वक्त ठहरा हुआ है

परिवेश खामोश है
हवा जम सी गई है
और भाँय-भाँय के
गहराते सूनेपन में
मैं हो जाता हूँ
बीते दिनों की बातें,

मुझे घेरे रहता है
अँधेरा होता जंगल का
खामोश क्षण
स्वप्न के गुफा लोक में,

और दिख जाते हैं
माँ, बाबू जी
अपनी-अपनी खाट पर,

फिर फुटकता है, मेरा बचपन
जहाँ मैं, बाबूजी और माँ
स्नेह के तिनकों के
घोंसला में समा
चोंचों की दुनिया में
चिड़ियाँ मन हो जाते हैं,

फिर आत्मा विमुग्ध होते जीवन का
पराग होता मन
हो जाता है साथ गुजरे
माँ, बाबूजी के दिनों के

रूपहल बादल खंडों की
इंद्रधुनषी दुनिया का
स्नेहसिक्त शबनम
और मन गंगोतरी ही
उछालें मारता आता है
और फिर रेत पर पसर
लौट आता है भरे मन
पसरी निराशा की धीमी तरंग हो,

और मन हो जाता है
रेत के टीले पर खड़ा
एक ठूँठ वृक्ष
मौन होती संध्या का,

और क्षितिज के अनंत में
समाता मैं
न अलग हो पाता हूँ
माँ, बाबूजी की उन खाटों से,

मेरे भावाकुल जीवन का स्वर
उनकी यादों की बाँसुरी से
गूँजता ही रहेगा, गूँजता ही रहेगा।


Original Image: Interior of isba
Image Source: WikiArt
Artist: Vasily Polenov
Image in Public Domain
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