तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा!

तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा!

तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा!
महलों का मेहमान जिस तरह
तृण-कुटिया वह भूल न पाए,
जिसमें उसने हों बचपन के
नैसर्गिक निशि-दिवस बिताए,
मैं घर की ले याद करकती
भड़कीले साजों में बंदी,
तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा।

सच, जंजीर नहीं है ऐसी
जो चाहूँ तो तोड़ न पाऊँ,
राह लौटने की बिसरा दी
फिर किस दिशि को पाँव बढ़ाऊँ,
धुँधली-सी आवाज बुलाती
ऊपर से, पर पंख कहाँ हैं;
छलना-सी धरती है मुझको, और मुझे अंबर छलिया-सा।
तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा।

गगन, गगन के ऊपर घन, घन
के ऊपर है उडगण पाँती,
उडगण के ऊपर बसता है
प्राण-पपीहे का प्रिय स्वाती,
उसकी आँखों के करुणा-कण
का सपना होठों पर अंकित
कर, किसने सागर की गोदी में बिठला उपहास किया-सा।
तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा।

सुभग तरंगें उमग दूर की
चट्टानों को नहला आतीं,
तीर-नीर की सरस कहानी
फेन लहर फिर-फिर दुहराती,
औ’ जल का उच्छ्वास बदल
बादल में कहाँ-कहाँ जाता है!
लाज मरा जाता हूँ कहते, मैं सागर के बीच पियासा।
तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा।


Image: Flowers Camelias and Tulips
Image Source: WikiArt
Artist: Henri Fantin-Latour
Image in Public Domain