था तो इश्क ही

था तो इश्क ही

अभी देखा कि गुलाब की पंखुड़ियाँ
प्रतीक्षा करते-करते सूख गई थी
किताब खोली तो
ये पंखुड़ियाँ उँगलियों में चुभने लगी
पता नहीं गुलों में
काँटों की रूह समा गई थी
मगर फिर भी था तो…इश्क ही

किया…तभी तो जाना
कि इश्क क्या बला है
और हुस्न भी कुछ होता है
और जज्बात भी कोई एब्सट्रेक्ट चीज है

किसी ने बताया
कि इश्क के कई मिजाज होते हैं
मेरा उनसे कौन सा इश्क था
ये कौन डिफाइन करता/मेरे सिवा…
जब तक जिस्म था/तब भी मेरा इश्क था
जब रूह जिस्म से बेवफाई कर गई
तब भी मुझे उससे इश्क था

उसने तो यही कहा था उसकी रूह मेरी थी
मेरे जिस्म की वो मालिक थी
इश्क का टाइप कुछ भी कहे दुनिया
मगर फिर भी था तो…इश्क ही

जब से वो जिस्म से रुखसत हुई
फुरसत ही फुरसत है/तभी किताबों में
पड़े सूखे गुलाब से पूछता हूँ
कभी क्रोशिये से लिखे रुमाल पर
अपने नाम से सवाल करता हूँ
उसके जिए कुछ अहसास
दोहराता हूँ रोज अकेला/मुझे मालूम है
वो नहीं आएगी आज मेरे सवालों का
छोटा सा भी जवाब देने को
मगर भूल कैसे जाऊँ
आखिर था तो…उससे ही इश्क!


Image: Still Life with Plaster Statuette, a Rose and Two Novels
Image Source: WikiArt
Artist: Vincent van Gogh
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