तीन गज़लें

तीन ग़ज़लें Asaf-ud-dowlah listening to musicians in his court- Wikimedia Commons

तीन गज़लें

(एक)

कब-कहाँ होता है मेरा आना-जाना ये तो पूछ
किसके-किसके है खयालों में ठिकाना ये तो पूछ

हम न जीते हैं न जीतेंगे कभी शायद मगर
चाहता है क्यों कोई हमको हराना ये तो पूछ

दिलबरों की बात क्या रहने दे होगी फिर कभी
दुश्मनों ने हमको कितना दिल से माना ये तो पूछ

कब तलक बदलेगा मुश्किल है बताना ये मगर
क्यों बदलना चाहते हैं हम जमाना ये तो पूछ

ये हमारी मुफलिसी का जश्न है इसको न देख
कैसे चलता है हमारा आबो-दाना ये तो पूछ

हम ग़ज़ल क्यों कह रहे हैं ये नहीं हम जानते
किसको लेकिन चाहते हैं हम सुनाना ये तो पूछ

(दो)

टेढ़ा था मगर इतना भी ज्यादा तो नहीं था
फरजी है अभी जो कभी ज्यादा तो नहीं था

हो जायेंगे हम इतना कभी तेरे दीवाने
मिलने से कल तुझसे इरादा तो नहीं था

कुछ दिन की जुदाई की फकत बात हुई थी
तुम जा के न आओगे ये वादा तो नहीं था

यूँ तो ये शहर पहले भी रंगीन नहीं था
पर यूँ उदास इतना भी सादा तो नहीं था

हम तेरी हुकूमत से कल भी गरीब थे
तन पे मगर फटा ये लबादा तो नहीं था

कैसे रही ताउम्र जिंदगी खुमार आ लूद
पीने के लिए सागरोवादा तो नहीं था

(तीन)

हम फिर से इतिहास साथियों लिक्खेंगे
आम नहीं कुछ खास साथियों लिक्खेंगे

रिश्ते और विश्वास साथियों लिक्खेंगे
तोड़ दिये बाजार ने कैसे-कैसे सब

कत्ल हमारे दिल का होता हो तो हो
लेकिन हर एहसास साथियों लिक्खेंगे

मौत हुई थी हम सब की जिस वज्ह से वो
भूख थी या उपवास साथियों लिक्खेंगे

किसने जंजीरों में जकड़ा है इन्साफ
किसका है इजलास साथियों लिक्खेंगे

किसकी मुट्ठी में है अम्न जमाने का
जंग है किसके पास साथियों लिक्खेंगे


Image: Asaf-ud-dowlah listening to musicians in his court
Image Source: Wikimedia Commons
Image in Public Domain

कुमार नयन द्वारा भी