याद

याद

मेरी आँखों की पुतली से
जो झाँक रही उन्मन छाया
दिकभ्रांत बनी
वह मेरे कितने पास
किंतु फिर भी है कितनी दूर आज।
जीवन की इस चहल-पहल में
कभी-कभी ऐसे पल भी
आ जाते हैं
जब मन अतीत की ओर
स्वयं ही मुड़ जाता।
कितने पुलकित मधुमास
लहरियों पर थिरकन करते
दौड़े आते।
खिंचती प्रकाश की नवरेखा,
धरती की सुषमा भरी-भरी,
आकाश चाँद की शीतलता से
बेसुध बन
लगता जैसे खोया-खोया।
फिर चित्र उभरता मिटता है।
सहसा सपनों की सिसकी में
कोई अवसाद सिमटता है।
मेरे अंतर के कोने में
करुणा का वारि छलकता है।
तुम आँचल में कुछ शूल रखे
चौबारे पर हो खड़ी
अभी तक आस लिए।
मैं फूल बीन कर भी
तुमसे तो हार गया।
तुम दीपशिखा-सी अडिग
और निष्कंप
काल के निर्मम झोंके
झेल रहीं
पर मैं वह धूलि
जिसे मारुत की गति
का रहता है आश्रय।
मैं अपने वचन
निभा न सके।
पूनम के ज्वार थपेड़ों ने
है खींच मुझे
ला दिया किधर।
तुम धरती का वह रूप
कि जो सब कुछ सह कर
रहती निर्लिप्त, मूक, चेतन।
तुम धन्य।
उदासी के क्षण में
आ जाती मुझको याद
विदा की वह वेला,
नयनों के आँसू, हिय-धड़कन,
घुटता अंतर–
वह सब उफान।
मैंने झेला था उसे
किंतु मुस्कानों से
रखकर अपने
व्याकुल, बेबस उर पर पत्थर।
भावुकता-सीमा लाँघ
आज तक तुम्हीं अचल।
लेकिन मेरी वह बौद्धिकता
तो सिद्ध हुई
अति क्षणभंगुर।
बस, उस क्षण का वह रूप तुम्हारा
जनम-जनम का मेरा साथी।
आज अचानक याद तुम्हारी
फिर हो आई
जैसे चलते राही को
ठोकर लग जाए।
लेकिन मेरी आँखों की पुतली
के समीप जो है उदास
बोझिल छाया
वह मुझ से कितनी दूर आज,
तुम मुझ से कितनी दूर आज।


Image: Wishbone
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Artist: Nikolaos Gyzis
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