केदारनाथ सिंह की अंतर्यात्रा का अलबम

केदारनाथ सिंह की अंतर्यात्रा का अलबम

मैं जब से हिंदी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के सान्निध्य में हूँ–इनके साथ के बीते क्षणों और इनके स्मृति-कोष में संचित संपर्क, ज्ञान और हास-परिहास की बातों का आस्वादन मेरे लिए एक अमूल्य निधि है। कहाँ से शुरू करूँ, केदार जी के साथ की प्रभाव-यात्रा। मुझे 10 वर्ष पहले का वह दिन और दृश्य अब तक याद है, जब मैं दिल्ली के साकेत स्थित उनके आवास पर उनसे पहली बार मिला था।  इसके पूर्व उन्हें कभी देखा न था। लेकिन प्रथम दर्शन में ही केदार जी ने मुझे ढेर सारी आत्मीयता दी थी। उसके बाद से तो मुझे केदार जी के दर्शन और सान्निध्य के अवसर प्राय: मिलते रहे हैं और हर दर्शन में कुछ-न-कुछ नवीन उपलब्धि की अनुभूति हुई है। विगत 10 वर्षों में वे अनेक बार पटना आए हैं और उस क्रम में उन्होंने पटना स्थित मेरे आवास पर आकर अपने सत्संग से मुझे कृतार्थ किया है। इसमें तीन बार तो उनका पटना आना सिर्फ मेरे लिए हुआ है। पहली बार मेरे उपन्यास ‘सूरज नया पुरानी धरती’ का विमोचन किया। दूसरा अवसर था मेरी भोजपुरी में लिखित पुस्तक ‘भोजपुरी के लोकावतार: भिखारी ठाकुर’ के लोकार्पण का। 

21 सितंबर, 2014 को वे मेरी पुस्तक ‘बैरी पइसवा हो राम’ के लोकार्पण हेतु पटना आए थे। उसके अगले दिन यानी 22 सितंबर को उनके सम्मान में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने आवास पर दोपहर का भोज दिया था। उसी दिन रात्रि में मैंने अपने आवास पर उनके लिए लिट्टी-चोखा का आयोजन रखा था। दरअसल, उन्हें मेरी श्रीमती जी के हाथों बनी लिट्टी कुछ ज्यादा ही पसंद है। उस दिन नियत समय पर वे मेरे घर पर थे। साथ में कवि श्रीराम तिवारी, उपेन्द्र चौहान समेत कई लोग भी थे। केदार जी समेत सभी ने बड़े चाव से लिट्टी खायी। श्रीराम तिवारी खाने के दौरान बारबार यह कहकर लिट्टी की तारीफ करते रहे कि मैंने इतनी बढ़िया लिट्टी अपने जीवन में कभी नहीं खायी है। इस पर केदार जी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा–“तिवारी जी, इसमें मेरा संशोधन है। मेरा कहना है कि मैंने पहले भी बढ़िया लिट्टी खायी है, लेकिन यहीं खायी है।” इस पर इतना जोरदार ठहाका लगा कि पूरा कमरा हिल उठा।

केदार जी के ऐसे ही ‘क्लीप स्फुलिंगों’ की सैकड़ों विवृतियाँ हैं। ये अपने सहज व्यक्तित्व को प्रासंगिक संदर्भों से जोड़कर आत्मीयता की सृष्टि कर देते हैं। अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अनकेश: चुटकी वाली कथाओं का सजीव आख्यान, विदेशी यात्राओं के अनुभव का कोश होता है इनके पास। ऐसा उड़ेल देते हैं कि हम उसका हिस्सा हो जाते हैं। ये जहाँ रहे, जिन छोटे-बड़े शहरों में, उनके जीवित आख्यान हमारे भीतर हैं। यही केदार जी की मनोविनोदी आर्द्रता और केदारीयता है। इनको जानने और समझने वाला हर कोई कहेगा कि केदार जी ऐसे ही हैं मक्खनी। इनको छुओ या पाओ तो हृदय के हाथ की उँगलियों में इनके राग-विचार की नमनीयता, इनका मित्र-भाव सट जाता है। इस सटान में अनेक व्यक्ति हैं। अनेक रेखा और वृत्तचित्र हैं। डॉ. नामवर सिंह से लेकर श्रद्धा से पिघल जानेवाले अशोक कुमार सिन्हा तक। त्रिलोचन जी से लेकर, पेरिस और अमेरिका के इनके काव्य-पाठों तक, हवाई यात्राओं तक हम भी इनके साथ घूम आते हैं। केदार जी ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकले कवि हैं। इनका जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ था। किसान पिता संगीत के प्रेमी थे। इन्हें गाने-गुनगुनाने की सीख गाँव के लोकगीतों से मिली  थी। इनके पिता की इच्छा इनसे खेती कराने की थी। लेकिन खेती करने से एतराज जताकर इन्होंने बनारस में पढ़ाई शुरू की। इंटरमीडियट की पढ़ाई के दौरान ही केदार जी के काव्य-लेखन की शुरूआत हो चुकी थी। एक रोचक प्रसंग उन्हीं दिनों का है। हिंदी विद्यापीठ, देवघर में काव्य सम्मेलन का आयोजन हुआ था। तब ठाकुर प्रसाद सिंह वहाँ के प्राचार्य थे। नवोदित कवि के रूप में केदार जी भी आमंत्रित थे। अज्ञेय जी समेत ख्यातिलब्ध कवियों की गरिमामय उपस्थिति से काव्यमंच शोभित था। कवि लोग अपनी-अपनी ताजा कविता सुना रहे थे। केदार जी को सबसे अंत में 5 मिनट का समय मिला। तब तक अज्ञेय जी मंच से उतरकर विद्यापीठ की अतिथिशाला की ओर प्रस्थान कर चुके थे। मंच पर पहुँचकर केदार जी ने खास ढंग से अपनी कविता का पाठ आरंभ किया-

‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की

उड़ने लगी बुझे खेतों से, झुर-झुर सरसों की रंगीनी,

धूसर धूप हुई मन पर ज्यों, सुधियों की चादर अनबीनी,   

दिन के इस सुनसान पहर में रूक-सी गई प्रगति जीवन की।’

सभा में सन्नाटा छा गया। कविता अज्ञेय जी के कानों में भी पड़ी। वे कविता की पुकार की अवहेलना नहीं कर सके और आधे रास्ते  से लौटकर पुन: मंच पर बैठ गए। पाँच मिनट का नियत समय समाप्त होने पर जब यह बैठने लगे, तब उपस्थित श्रोता ‘अभी और, अभी और’ कहते गए। अज्ञेय जी मस्ती में झूमने लगे। उस दिन 5 मिनट की जगह पूरे आधे घंटे तक केदार जी का कविता-पाठ जारी रहा। इस प्रसंग को सुनाते हुए वे कहते हैं, वैसा आनंद कविता-पाठ में फिर कभी नहीं आया।

केदार जी अपने  प्राकृतिक परिवेश के संगीत को कभी नहीं छोड़ते। इनके गाँव-घर के आगे एक नदी है। फिर बनारस में गंगा मिली और त्रिलोचन शास्त्री एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे गुरु मिले। बनारस, त्रिलोचन, द्विवेदी जी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय सदा के लिए इनमें बस गया। इनके भीतर त्रिलोचन और हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के प्रेम-दान का विस्फोट हुआ। पहला कविता-संग्रह 1960 में ‘अभी, बिल्कुल अभी’ आया। अपने रूमानी गुलाब को ये कहाँ रोपें। दरवाजे पर पिता का बदगद है और आँगन में माँ की तुलसी का बिरवा। यहीं से शुरुआत हुई।

केदार जी के निकट बैठकर उनके सरस वार्तालाप सुनने का मौका अनेक बार मुझे नसीब हुआ है। केदार जी अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं त्रिलोचन शास्त्री का शिष्य घोषित करने में परम गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसे अनगिनत मौके आए हैं, जब केदार जी अभिभूत होकर मुझसे अपने दोनों गुरु के बारे में बोलते रहे हैं। केदार जी ने एक बार मुझसे कहा था कि द्विवेदी जी ने पहले सूर पर लिखा, फिर कबीर पर। वे तुलसी पर भी लिखना चाहते थे। इसकी तैयारी भी कर चुके थे। पर तुलसी पर लिखे बिना ही वह दुनिया छोड़ गए। अपने गुरु त्रिलोचन का भी ये बड़े पुण्य-भाव से स्मरण करते हैं। वे कहते हैं कि उनसे बहुत पाया और बहु कुछ सीखा। जब तक वे जीवित थे, कहीं किसी शब्द पर अटकता था तो यह विश्वास था कि एक महा शब्दकोश है, जिसका नाम है त्रिलोचन शास्त्री। आचार्य द्विवेदी, त्रिलोचन शास्त्री एवं उनकी रचनाओं से जुड़ी कई अनछुई बातों को केदार जी से बड़ी शिद्दत और नफासत से सुनने का सौभाग्य मेरी धरोहर है। 

हिंदी जगत को सहसा यह विश्वास करना कठिन होगा कि त्रिलोचन कभी रिक्शा चलाया करते थे, वे क्रांतिकारी रहे थे, वे पाँच सेर भिंगोरा चना खाकर पचा लेते थे, वे श्मशान में घंटों बैठते थे, वे अनेक यौगिक सिद्धियों के चमत्कार  जानते थे, वे साइकिल चलाते-चलाते सांढ़ के नीचे से निकल जाते थे, आदि-आदि। ये सब मैंने केदार जी से सुना है।

द्विवेदी जी और त्रिलोचन के संस्मरण का एक प्रसंग यहाँ उल्लेखनीय है जिसे केदार जी सुनाया करते हैं। एक बार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में शंकरदयाल सिंह के कमरे में एक साहित्यि गोष्ठी हुई थी, जिसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी और त्रिलोचन समेत कई वरिष्ठ-कनिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति थी। गोष्ठी में कई सुप्रसिद्ध कवियों की कविताएँ हुई। जब भी त्रिलोचन शास्त्री की बारी आती तो यह कहकर कन्नी काट लेते कि मुझे अपनी कोई कविता याद ही नहीं रहती। बहुतेरे अनुरोधों का भी जब कोई असर उनपर नहीं हुआ, तब द्विवेदी जी ने कहा- आप अपनी कोई भी रचना सुनाइये, जहाँ भूल जायेंगे, मैं याद दिला दूँगा। इस आश्वासन पर त्रिलोचन जी ने अपनी पहली पंक्ति शुरू की-

मुझसे भूला न गया, उनसे भुलाया न गया।

बार-बार वे यही पंक्ति दुहराते रहे और आगे की दूसरी पंक्ति भूल गए, तब द्विवेदी जी ने बहुत  गंभीरता से कहा ‘इनसे खोला न गया, हमसे खुलाया न गया।’ और इसके बाद वहाँ उपस्थित पूरी मंडली ठठाकर हंस पड़ी।

केदार जी का शारीरिक कद-दप झुका हुआ, तृप्त और छोटा है। पर यही कद हिंदी कविता में और ग्रामीण छोटे लोगों, चिड़ियों, कीचड़, भाषा के रचे-बसे बिंबों का बडा़ कद है जो कविता के मूल आस्वादन के फलक पर छा गया है। दूसरा कोई नहीं है केदार जी जैसा संवेदना के रेशों का निर्माता। भीतर की चित्र-भाषा का चितेरा एक विराट वृक्ष की तरह यही केदार जी की जड़ों की गहराई और ऊँचाई है, जिस पर प्रकृति और भाषा की दो चिड़ियाँ निरंतर बैठी चह-चहाती रहती हैं और मनुष्यता के खालीपन को भरती रहती हैं। केदार जी की कविताएँ जीने का भरोसा देती हैं। संवाद और संकेत इनके यहाँ मूर्त हो गए हैं।  इनमें हमारे आज की अग्रगामी मानवीय सभ्यता के संवाद और संकेत हैं। केदार जी ने कविता के आकाश में सबसे अधिक संवेदी दृष्टियों के मिसाइल प्रक्षेपित किए हैं। यही इनके द्वारा सिंचित कविता की महनीयता है और हिंदी कविता का गौरव। एक तरह से इन्होंने कविता की किसानी की है। केदार जी की भीतरी यात्रा में मैं उन सारे छूनेवाले समझ के अग्रणी सूत्रों का एक संकलन पेश करता हूँ। केदार जी वस्तु सत्ता और दिनचर्या मंे शामिल, प्रत्यक्ष उन चीजों को कभी नहीं भूले जैसे कुदाल, किवाड़ कपास-जो जीवन क्षणों को अर्थवत्ता देते हैं।

इस तरह पूरा एक देश और परिवेश है-हृदय में भरे सुख की तरह केदार जी के भीतर। यह किसी के लिए एक यात्रा के सुख से कमतर नहीं है। इस यात्रा में एक चिड़िया निरंतर खेत की मेड़ पर टूटे पड़े एक हल को उठाने का जरूरी जनहित कर रही है। उनकी एक कविता की पंक्तियाँ देखें-‘वह एक अद्भुत दृश्य था/मेह बरसकर खुल चुका था/ खेत जुतने को तैयार थे/एक टूटा हुआ हल मेंड़ पर पड़ा था/और चिड़िया बारबार- बारबार/उसे अपनी चोंच से/उठाने की कोशिश कर रही थी/मैंने देखा/और मैं लौट आया/क्योंकि मुझे लगा कि मेरा वहाँ होना/जनहित के उस काम में/दखल देगा।’

गाँव उनकी कविता में आबादी की बसाहट की एक इकाई भर नहीं है, बल्कि मनुष्यता, प्रकृति और विराट सृष्टि का लघु रूप है। खेत, पेड़-पौधे, पगडंडियाँ नदी और गाँव उनकी कविता में खूब दिखते हैं। पूँजीवाद, भूमंडलीकरण व उदारीकरण आज सिर्फ गाँवों को ही नहीं,बल्कि पूरी प्रकृति और मनुष्यता को निगल रहे हैं। यह चिंता उनकी कविताओं में बहुत साफ झलकती हैं- ‘एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष/जिसके शीर्ष पर हिल रहे/तीन-चार पत्ते/कितना भव्य था/एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर/महज तीन-चार पत्तों का हिलना/उस विकट सुखाड़ में/सृष्टि पर पहरा दे रहे थे/तीन-चार पत्ते।’

फिर 1988 में ‘अकाल में सारस’ में पूरा इनका जनपद कविता में समा गया। स्मृतयाँ, चरित्र सृजनात्मक हो गए। फिर केदार जी- भारतीय कविता के शिव-केदार हो गए। एक अक्खड़ता आई। पशु जीवन में दिलचस्पी ‘बाघ’ जैसी सीरीज कविता से अंततः इनकी आज उद्भावना है। कल्पना में जो ‘बाघ’ सृजित है, वह ‘पंचतंत्र’जैसी कविता में कथा सृजन का लोक साहित्यिक आयाम हो गया। इन्होंने पंचतंत्र की भावना का आधुनिक संवेदना से मेल बैठाकर दिखा दिया है कि जब पशु हमें देखता है तो कैसा लगता होगा। केदार जी की ऐसी विरल योजनाएँ विश्व-कविता में प्रथम हैं। कला में नयी कल्पना, जो दृष्टि का समाहार कर दे।

केदार जी कविता में ईमानदार, सहज और सादगीपूर्ण वक्तृता करनेवाले एक मात्र अनूठे व्यक्ति हैं। यही इनकी निजता का टटकापन है। ये विमोहित कर देते हैं और उद्धरणीय हो जाते हैं। ध्वनि प्रभाव की इनकी मुद्रा आंदोलित कर देती है। चीजें, बातें क्यों कोशिश के बावजूद विनष्ट हो जाती है। यही अबूझ पहेली है। जो बची रह जाती हैं उन्हीं को बचाए रखना केदार जी की कविता है। लगातार इनके साथ स्मृतियों में लौटने की प्रक्रिया इनके चलते हमारे भीतर चलती जा रही है। केदार जी ही हैं कि कविता के बाहर भी हमें कविता दिखलाई पड़ती है। लगता है संवेदना का जाल सर्वत्र बिछा हुआ है। कहीं कुछ बनावटीपन नहीं है। सब कुछ सहल सौन्दर्यपूर्ण है। कहीं कविता में दावा करने का बोलापन नहीं। सबसे अधिक दरारों, दराजों, मजदूरों में बोलती कविता। छोटी से छोटी चीजों में भी आस्था और विचार का सन्निवेश। मनुष्य को बचाने की चिंता। किसी समर्पित काठी को बुझाने, गिरने नहीं देना। कहीं कौशल नहीं, एक निरावृत बारीक पैना  खुलापन। संवेदना में उतारने का उपक्रम। एक वासंतिक शमा। जैसे जीवन की रंगों का रस निचोड़ लिया गया हो। कहीं कोई मुद्दा नहीं। न रूमानीपन। केवल ग्रहणशीलता की धार। आदिमता से मोह नहीं- जुड़ाव। जहाँ से स्रोत फूटा है उसकी पहचान। एक अर्थपूर्ण साक्षात्कार। जमीन को पकते हुए देखना। मनुष्य के पास हमेशा बचा रहे एक सादा पन्ना, जिसपर रचना की इबारत लिखी जाती रहे। राग की संरचना होती रहे। मनुष्य से ऐसा विरल और अविरल है केदार जी के यहाँ। किसी मूल्यवान का क्षरण नहीं हो। अन्न का दाना अपनी जगह पर रहे। चीजें बाजार नहीं हों, क्योंकि बाजार से फिर लौटना मुश्किल है। वहाँ पारदर्शिता नहीं हैं, अदृश्यता है- ‘हम मंडी नहीं जाएँगे/खलिहान से उठते हुए/कहते हैं दाने/जाएँगे तो फिर/लौट कर नहीं आयंेगे/जाते-जाते कहते हैं दाने…।’

केदार जी शब्दानुशासन को बिंब बना देते हैं बिना उसको तराशे। शब्द मेघों की तरह एक कार्यक्रम और कवि-कर्म की खुशी हो जाते हैं। अनुभव बतियाने लगता है। केदार जी त्रिलोचन के साथ टूटे हुए बच्चे बाध की निर्मित के लिए हमारे कुम्हार की आँख के पास बैठे हुए हैं। यही भारतीय खोज की चिर अभिधा है। कविता की अनंत जातीय यात्रा। केदार जी का पता हमेशा इसी यात्रा में है। वे कविता के घर के अधिवासी हो गए हैं। अपने को खुश रखनेवाली कविता के साथ कविता को खुश रखनेवाली साधना में निरत हैं। घर का मतलब दीवार नहीं होता- यह कोई केदार जी से सीखे। भीतर से बाहर, बाहर से भीतर की आवाजाही होती है। इसीलिए अपनी हर कविता में ‘मैं’ की अविश्वरता के साथ केदार जी मिल जाते हैं। केदार जी के बिना हिंदी कविता हो ही नहीं सकती है। नयी कविता की उत्तरगाथा में वे निरंतर कविता-आधुनिक पीढ़ी की कविता के साथ चल रहे हैं। उनका कहना है- आगे देखो, पीछे को भूलो मत। सृष्टि पर पहरा देते रहो। चकिया में जन्मो चाहे बखोरापुर में। दिल्ली को गंतव्य कभी नहीं मानो। कविता की आबादी में तुम्हारी बसावट इकाई मात्र नहीं है- वह प्रकृति और मनुष्ता को निगलने वालों के खिलाफ खुला प्रतिरोध है सनातन। सात संमुदर पार भी जाना तो उस प्यार को भूलना मत। तुम्हारी देह ने एक देह का नमक खाया है। केदार जी प्यार की यही देह हैं। इन्होंने मनुष्य होने की देह का नमक खाया है।

इन्हीं रूपों में केदार जी के माध्यम से आधुनिक कविता की पहचान और उसकी यात्रा होती है। इसी मात्रा में जनता की टकसाल में भाषा बनती है। केदार जी कहते हैं-लोगों का बोलना ही भाषा के बनने का सबसे बड़ा आधार है। कविता की कोई पंक्ति याद आती है तो वह बहुत काम की होती है और परेशान भी करती है। ऐसा तुलसी, कबीर, गालिब की पंक्तियाँ करती हैं। केदार जी इनमें रमे रहते हैं। इनका मानना है कि आधुनिक कविता उस हद तक काम नहीं कर रही है। केदार जी यही ताकत पैदा करना चाहते हैं अपनी प्रगाढ़ आत्मीयता से।

केदार जी जीवन की भाषा का इजाद करने में अनवरत हैं। गाँव के घरों में ताले लटकते जा़ रहे हैं। केदार जी काँप गए हैं-शहर की ओर प्रयाण से। यह कैसा ,खोखलापन है। इसको भरना, मिटाना ही रचना के साथ मानसिक श्रम है। लोग  उपभोग की तरफ भाग रहे हैं। इसी से पाठक कम हो रहे हैं। तन्मयता मिट रही है। हमारी काव्य-संवेदना कैसे तुम्हारी, दूसरों की संवेदना बने-यही आज की रचना-प्रक्रिया है। ऐसी कविता हो तब वह विफल नहीं होगी। परंपरा त्याज्य होती जा रही है। केदार जी चिन्तित हैं। महानगर इन्हें अलगाव से काट रहे हैं। अपनी कविताओं से समय, बड़ा समाज, संस्कृति और जीवन की बेहद आत्मीय छवि के बिंब उकेरने वाले केदार जी का कद आज इतना बड़ा हो गया है कि इनसे जुड़कर पुरस्कार स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है। लेकिन अपने शुरूआती दिनों में भी केदार जी कभी सम्मान विभुक्षी नहीं रहे। न उन्होंने धन के लिए लिखा, न कीर्ति के लिए।

हाल ही में वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हे प्राप्त हुआ है। पुरस्कार घोषणा के पूर्व जब ज्ञानपीठ ने इनकी सहमति लेनी चाही तो उन्होंने जानना चाहा कि पुरस्कार की दौड़ में उनके अलावा और कौन-कौन नाम हैं। जब इन्हें पता चला कि सूची में कृष्णा सोबती का भी नाम है तो इन्होेंने अपनी तरफ से यह कहकर उनके नाम की सिफारिश कर दी कि बड़ी हैं वे मुझसे उम्र में। हर तरफ से बड़ी है मुझसे।  सम्मान करता हूँ मैं उनका। लेकिन इसके बावजूद जब ज्ञानपीठ ने इन्हें पुरस्कार देने की घोषणा की, तब जाकर उन्होंने उसे स्वीकार किया। फिर भी ज्ञानपीठ पुरस्कार को वे अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान नहीं मानते। जब ये पडरौना के कॉलेज में प्राचार्य थे, वहाँ का एक वाक्या सुनाते हैं। पडरौना में किसी बात को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ चुका था। तनाव को खत्म करने के लिए दोनों समुदायों ने इन्हें अपना प्रतिनिधि चुना था और इनके बताये फार्मूले को दोनों समुदाय ने स्वीकार कर सुलह कर ली थी। दोनों समुदायों के विश्वास को ये अपने जीवन का सबसे बड़ा मानवीय सम्मान मानते हैं। 


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