अम्मा

अम्मा

जीवन की सबसे प्यारी चीज जब तक पास होती है, उसका सही-सही मूल्य हमें कहाँ पता होता है! उसके नहीं होने पर ही हम उसके होने के अर्थ का मर्म समझ पाते हैं! अम्मा नहीं रही, सहसा कहाँ यकीन होता है! वह अब भी हमारे अंदर रची-बसी हैं, इस अहसास से अपने को समृद्ध करने की कोशिश करती हूँ। हालाँकि इधर कुछ दिनों से अम्मा काफी कमजोर होने लगी थी। उठने-बैठने में उन्हें तकलीफ होती और चलने-फिरने में भी सहायता की जरूरत महसूस करती थी। मुझे लगता है, अपने अंत समय में वह जीवन को दार्शनिकों की तरह जानने-समझने की कोशिश करने लगी थी। जीवन के रहस्यों को समझने की चिंता में अक्सर गूढ़ बातें किया करतीं। इस दुनिया से वह किस तरह से विदा होगी, यह सवाल उन्हें सताने लगा था और प्रायः कहा करती कि जाने का रास्ता भी बहुत कठिन है। जीवन का मोह उन्हें घेरता तो कहतीं बोरिंग रोड में एक नया अस्पताल खुला है, चलो देख लें साफ-सुथरा तो है न! हम उनकी बातों को हँसकर टाल देते और कभी-कभी समझाते कि वे चिंता न करें, हम चारों भाई-बहन मिलकर उनका पूरा-पूरा ध्यान रखेंगे और उन्हें किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। लेकिन जाने किस बात से वह अब अक्सर जिद करने लगी थी।

अम्मा के नहीं होने पर मन जाने क्यों बार-बार अतीत के उत्खनन में सुकून पाता है। याद करती हूँ, 1971 में जब हमारी नानी नहीं रहीं तो एक दिन अम्मा मुझसे बोली–‘हम अनाथ हो गए!’ तब मैं समझ नहीं पाई कि इतनी उम्र वाली हमारी अम्मा अपने भरे-पूरे घर-परिवार के बीच रहकर भी खुद को अनाथ कैसे कह सकती हैं! तब अम्मा की उम्र 39 वर्ष की रही होगी। लेकिन आज जब मैं खुद 71 वर्ष की हो रही हूँ, तो मुझे रह-रहकर उनकी बातें याद आ रही हैं और मैं अपने को अनाथ महसूस कर रही हूँ! एक बेहद अकेलापन से घिरा खुद को अनाथ महसूस कर रही हूँ। जिजीविषा का एकांत पल कितना संत्रासक होता है!

मेरा बचपन, नाना-नानी के सख्त अनुशासन में बीता। तब अम्मा और बाबूजी गाँव और अन्य कामों में व्यस्त रहते थे। बाद में जब वह पटना में अपना घर बनाकर स्थायी तौर पर यहाँ रहने लगे, तब मेरा ज्यादा समय पटना में बाबूजी के साथ गुजरने लगा। अम्मा की मुझ पर और मेरी दोनों बहनों एवं भाई पर नजर रहती थी, कि हम अच्छी शिक्षा प्राप्त करें और अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ें। एक दिन उन्होंने हम तीनों बहनों का नामांकन महेंद्रू घाट स्थित सेंट जोसेफ कॉन्वेंट स्कूल में करवा दिया। हमारी पढ़ाई-लिखाई पर अम्मा सतर्क दृष्टि रखती और प्रतिदिन शाम में खुद से निरीक्षण-परीक्षण करती। तब हमारी मंथली टेस्ट हुआ करती थी, जिसकी रिपोर्ट वे अवश्य देखतीं। हमारी पढ़ाई के परिणाम बेहतर रहें, इसके लिए वे इच्छुक रहा करती। किसी विषय में हम कमजोर होते, तो उस विषय को वे खुद ही पढ़ा दिया करती थी। हमारे स्कूल का ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं होता, जिसमें वे खुद न जातीं और इससे उन्हें काफी खुशी मिलती थी। हमारी स्कूली कार्यक्रमों के लिए बाबूजी कभी समय नहीं निकाल पाते थे, लेकिन अम्मा जरूर जाती।

तीन बेटियों में मैं सबसे बड़ी थी। मेरे सबसे छोटे भाई समीर (प्रमथ राज) का जन्म बहुत बाद में हुआ, जो मुझसे 14 वर्ष छोटे हैं। मैं जब बहुत छोटी थी, तभी से अम्मा मुझे घर के कार्यभार समझाती और तमाम जिम्मेदारियाँ मुझे सिखाने लगी थीं। अक्सर जब माँ-बाबूजी कहीं चले जाते, तो घर की चाभी मुझे सौंप दी जाती। भाई-बहनों की देखभाल करने की जिम्मेदारी तो मुझ पर होती ही। ऐसा कोई काम, जो लड़कियों के कौशल, संस्कार आदि के लिए जरूरी हो, वह सीखने को अवश्य प्रेरित किया जाता, मसलन कथक डांस, गाना, कढ़ाई-सिलाई, पेंटिंग इत्यादि। खाना बनाने सीखने पर बहुत जोर रहता। मुझे कुकिंग क्लास के लिए अम्मा कहीं-कहीं भेजती थी। यदि कभी कोई विशेष व्यंजन मैं बनाती, तो वह बहुत खुश होती। अम्मा को शायद बचपन से ही सिलाई-कढ़ाई का बहुत शौक था। हम बहनों के कपड़े वे स्वयं सिंगर सिलाई मशीन पर सिलतीं थीं और उस पर बहुत सुंदर कढ़ाई करती थीं। हमारे दोस्तों के बीच तथा मुहल्ले भर में हम बहनों के कपड़ों की बड़ी धाक रहती थी। सभी उसकी तारीफ करते।

हमारी नानी की तरह अम्मा को भी सामाजिक कार्यों में बहुत रुचि थी। उन्हें अक्सर बिहार महिला परिषद के कार्यों में व्यस्त पाती थी। अखिल भारतीय महिला परिषद के अंतर्गत कुछ महिलाओं को मिलाकर अम्मा ने निर्धन समाज की महिलाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण देने के वास्ते एक स्कूल भी खोल रखा था। अम्मा पूरे दिन दोस्तों के बच्चों के कपड़े खुद सिलाई करके पैसे इकट्ठे करती और उसे स्कूल में लगाती, ताकि वहाँ किसी प्रकार की कोई कठिनाई प्रशिक्षणार्थियों को न हो। कई सालों तक वह स्कूल चलता रहा और सैकड़ों महिलाओं ने वहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने परिवार के भरण-पोषण में अपनी उपयोगिता सिद्ध की। अम्मा कभी-कभी ‘आनंद मेला’ का आयोजन भी करवाती, ताकि उससे अर्जित धन से स्कूल की व्यवस्था और दुरुस्त की जा सके। अम्मा के सभी कार्यक्रमों में हम भाई-बहन भी सोत्साह भाग लेते। सन् 1962 में जब भारत पर चीन आक्रमण हुआ, तो अम्मा सभी महिलाओं के सहयोग से सीमा पर सेना के जवानों के लिए स्वेटर, मौजा और दास्ताना की बुनाई कराकर भेजतीं। इस निमित्त वे सभी चीजों के साथ भोज्य सामग्रियों के पैकेट भी तैयार करवाती और जो जवान ट्रेनों में भर भरकर सीमा पर जा रहे होते, उन्हें वे पैकेट्स पहुँचाती। इस तरह के अनगिन सामाजिक कार्य अपने छुटपन से ही अम्मा को करते पाया। अम्मा के कार्यों में सहयोग कर हमें भी अपार खुशी होती। हममें अम्मा को सहयोग करने का एक अलग प्रकार का उत्साह हुआ करता था। उसी माहौल में हम बड़े हुए। जो कुछ बचपन में बड़े होते हुए हम भाई-बहनों ने अपनी अम्मा से सीखा, वह बड़े होने पर अपने दायित्व निर्वहन में हमारे बहुत काम आया।

मेरे बाबूजी जब कभी अस्वस्थ होते, अम्मा अकेली ही उनकी देख-रेख करती। उनका पूरा ध्यान रखती। हमारा परिवार संयुक्त होने के कारण तब अनेक सगे संबंधी हमारे यहाँ आते-जाते रहते थे। अतिथियों के हमारे घर आने का सिलसिला लगा ही रहता। घर हमेशा ही भरा रहता था। अम्मा को तब हर मेहमान की खातिरदारी करते देखती! घर में कितने ही मेहमान क्यों न आए हुए हों, उनके सेवा-सत्कार में अम्मा को कभी परेशान भाव में नहीं देखा। इतना सब कुछ करते हुए भी हम भाई-बहनों की पढ़ाई या पालन-पोषण में अम्मा लगी रहती। कभी हमने उनकी तरफ से अपनी उपेक्षा महसूस नहीं की। वह हम बच्चों का बराबर पूरा-पूरा ध्यान रखतीं। आज सोचती तो लगता है कि हमारे परिवार या कहें कि ‘सूर्यपुरा हाउस’ की आत्मा जो सब के अंदर नव जीवन का संचार किया करती।

अम्मा पूजा-पाठ में थोड़ा विश्वास रखती थी। बहुत कम उम्र से ही वह छठ जैसा कठिन व्रत करती और गंगा किनारे जाकर खुद पूजा-अर्चना करती! मेरे बाबूजी का जन्म ही छठ पर्व के दिन हुआ था, जिस कारण बचपन में उन्हें ‘छठुवा’ नाम से भी संबोधित किया जाता। कौन जाने उसका कुछ प्रभाव जाने-अनजाने अम्मा पर पड़ा हो! जब मैं सिविल सर्विस की परीक्षा दे रही थी, तो प्रत्येक मंगलवार को अम्मा पटना जंक्शन स्थित महावीर मंदिर जाती और फर्श पर बैठकर तन्मय हो सुंदरकांड का पाठ करती। वह हमेशा अपने कार्य में दत्तचित्त रहती। सरदी हो या गरमी, उन्हें कोई फर्क नही पड़ता।

सिविल सर्विस में जब मेरा चयन हो गया तो अम्मा बहुत खुश हुई, लेकिन अगले ही दिन से उन्हें चिंता सताने लगी कि मैं आई.पी.एस. का कठिन प्रशिक्षण पूरा कैसे कर पाऊँगी। मैं उन्हें आश्वस्त करती, तो वह मुझे संशयग्रस्त मन से जरूरी हिदायतें देती। जब मैं पुलिस अकादमी से अपना प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पास करके बिहार कैडर में पदस्थापित हुई, तब वह बहुत खुश थी। जहाँ-जहाँ मैं पदस्थापित होती, उन स्थानों में वह जरूर आती और हमारे साथ रहकर बहुत खुश रहती। वास्तव में अम्मा मेरे पूरे जीवन की केंद्रबिंदु थी। मेरे जीवन के एक-एक हिस्से में उनका दखल होता। जब तक नौकरी में रही, तब तक अपने बच्चों की बेहतर देखभाल के लिए अम्मा पर ही निर्भर रही। बच्चों को सँभालने में उन्हें भी बहुत आनंद मिलता। जब कभी देश-विदेश में मुझे प्रशिक्षण-अध्ययन के लिए जाना हुआ, अम्मा हमेशा मेरे बच्चों को सँभालने के लिए आ जाती। हम भी निश्चिंत होकर कहीं भी आ जा सकते। मेरे लिए अम्मा कभी भी किसी कार्य से पीछे नहीं हटी। सच तो यह है कि अम्मा हमेशा मेरे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण सहारा बनकर रही। वो थी, तो हमें कभी कुछ सोचना नहीं पड़ा।

2004 के जून महीने में बाबूजी का निधन हुआ। तब एकबारगी तो लगा कि हम एकदम से अकेले हो गए हैं, बिलकुल अनाथ-सा। अम्मा पर तो जैसे वज्रपात ही हुआ। उस विरल विपदा की घड़ी में भी अम्मा ने स्वयं को सँभाला और हमें भी अकेलेपन का एहसास तक होने नहीं दिया। जाने कैसी शक्ति थी उनमें कि उनके साहचर्य में रहकर हम भी अपने को शक्ति और ऊर्जा से भरा-भरा महसूस करते। वह हम सब को अच्छे से सँभालती हुई पटना का घर पूर्ववत चलाती रहीं। कभी हमारे ऊपर निर्भर नहीं रही। घर में अम्मा से उजास भरा रहता। बीते 4-5 वर्षों से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, तब जाकर वह हमारे ऊपर निर्भर रहने लगी थी। मैं जहाँ भी रहती, फोन करके उनकी दिनचर्या की एक-एक बात जानती रहती और उनके स्वास्थ्य की भी खबर रखती। किसी भी तरह की उन्हें समस्या होती, तो फोन पर ही उन्हें हर आवश्यक सुझाव देती। अब हमारी भूमिका बदल गई थी। मैं अम्मा की जगह पर आ गई थी। अब हम उनकी देखभाल करने लगे, जैसे जीवन भर उन्होंने हमारी देखभाल की।

लगभग 70 सालों तक अम्मा का प्यार हमें मिलता रहा। अब उनके नहीं रहने पर जो हमारे जीवन में खालीपन भर गया है, वो शायद ही कभी रूखसत हो! किसी भी बेटी के जीवन में माँ की एक विशेष भूमिका होती है। माँ-बेटी के इस बंधन को सृष्टि के विधाता भी तोड़ नहीं सकते। यह भाव का अटूट बंधन होता है! मुझे अम्मा की हर छोटी-बड़ी बात अब रह-रहकर याद आती है। आखिर वह कहाँ चली गई…कैसे चली गई…कितनी दूर गई है…जाने इस तरह के कितने ही भाव मन में आते हैं! सहसा विश्वास ही नहीं होता कि अब हम उन्हें कभी देख नहीं पाएँगे! फिर भी लगता है कि वह कहीं हमारे आसपास ही रहकर हमें अपनी निगरानी में रख रही हैं। माँ जो ठहरी…हमें छोड़कर कैसे जा सकती हैं! जब तक हम भाई-बहन हैं और हमारे बच्चे हैं, उन सबमें हमारी अम्मा की छवियाँ अपनी मौजूदगी से हमें समृद्ध करती रहेंगी!


Image Source : Personal collections of Pramath Raj Sinha and Family

मंजरी जारुहार द्वारा भी