मौसी माँ

मौसी माँ

माँ के बाद अब मौसी, माँ भी नहीं रहीं! मौसी माँ शीला सिन्हा सेवा अनुशासन और करुणा का ऐसा संगम बनी रहीं, जिसमें डुबकी लगाने वाले के जीवन में भी करुणा और अनुशासन का भाव भर जाए! आज उनके नहीं रहने पर जाने कितनी सारी स्मृतियाँ मेरे अंतरमन में उमड़ने लगी हैं! माँ के बाद अपनी मौसी माँ के जीवन से जाने कितने ही संस्कार ग्रहण किए हैं, जो मेरे जीवन को सुवासित करता रहा है।

मौसी का घर मेरे नाना-नानी की बगल में था। मेरे नाना डॉ. बटुकदेव प्रसाद वर्मा अपने समय के प्रसिद्ध चिकित्सक थे, जो बिहार के प्रथम एफ.आर.सी.एस. (स्कॉटलैंड) थे। वे नए ख्यालों के थे और बेटियों की शिक्षा पर बहुत ध्यान देते थे। मैं छुटपन में अपनी नानी के घर रह पढ़ाई करती और छुट्टियों में अपने घर तिलौथू चली जाती। नानी के घर रहते हुए अपनी मौसी को अत्यंत निकट से जानने-समझने का अवसर मिला। उनमें अनेक गुण थे। घर के जाने-कितने सारे काम मसलन घर की सजावट, भोजन, सिलाई-कढ़ाई आदि के साथ-साथ बाग-बगीचे तक की देखभाल में खूब रुचि लेतीं। मेरी माँ को भी सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों में बेहद रुचि थी। इसके लिए उन्होंने रोहतास में एक महिला सेवी संस्था ‘तिलौथू महिला मंडल’ की स्थापना कर रखी थी, जिसमें उस पिछड़े अंचल की ग्रामीण महिलाओं को संगठित कर उन्हें सिलाई-कढ़ाई की ट्रेनिंग दी जाती, उत्पादित वस्तुओं की आपूर्ति देश-देशांतर में की जाती। तिलौथू एप्लिक केंद्र की चीजें दूर-दराज में काफी पसंद भी की जातीं। यही नहीं, मेरी माँ ने उस जमाने में कार्यशील महिलाओं के लिए एक छात्रावास भी खोला, जहाँ से काज-परोजन में भोज्य पदार्थों की जो माँग आती थी, उन्हें पूरा किया जाता था। पालना घर, आँगनबाड़ी आदि में भी अपनी रुचि को उन्होंने विकसित किया, जिसका लाभ पूरे इलाके को मिला। अपनी मौसी में भी मैंने ये सारे गुण देखे। दोनों यानी माँ और मौसी के गुण-संस्कार एक-से थे!

विवाह के बाद जब मैं पटना में बस गई, तो मौसी को और करीब से देखने, जानने-समझने का अवसर मिला। वास्तव में मेरी नानी को भी सामाजिक कार्यों में बहुत मन लगता था। जब से मुझे याद है, मेरी नानी, अम्मा और मौसी को मैंने बिहार महिला परिषद (बी.सी.डब्ल्यू.) और अखिल भारतीय महिला परिषद (ए.आई.डब्ल्यू.सी.) से जुड़कर काम करते हुए पाया और इसे हम बहुत स्वाभाविक समझते रहे। पटना आने पर मैंने भी इस परंपरा का निर्वाह किया और दोनों संस्थानों से जुड़ी रही। मेरी मौसी श्रीमती शीला सिन्हा बिहार महिला परिषद में 20 वर्षों से भी अधिक समय तक कोषाध्यक्ष रहीं और मजाल है कि उनके कार्यकाल में हिसाब-किताब में मामूली-सी भी कोई गड़बड़ी हुई हो। इस मामले में उनका अनुशासन बिलकुल दुरुस्त और सख्त रहता। एक-एक काम का हिसाब रखतीं और व्यवस्थित तरीके से महिला संघ के सारे काम निष्पादित करने में अपना योगदान देतीं। संघ से जुड़ी सभी सदस्य उनसे काफी प्रसन्न रहतीं। उन्होंने सभी के साथ पारिवारिक माहौल बना रखा था, जिससे काम भी सौहार्दपूर्ण माहौल में अच्छी तरह से संपन्न होते।

बिहार महिला परिषद को बिहार सरकार के समाज कल्याण बोर्ड से कुछ अनुदान भी मिलता। इस राशि से परिवार नियोजन केंद्र संचालित किया जाता। सरकारी अनुदान के हिसाब-किताब के लिए बहुत कागजात चाहिए होते थे, लेकिन मौसी बिना धैर्य खोये सभी आवश्यक कागजातों के साथ अक्सर सचिवालय जाती और अधिकारियों से तालमेल बिठाये रखतीं। कोई दूसरा होता, तो ऊबकर इस काम को छोड़ देता और इस कारण परिवार कल्याण केंद्र भी बंद हो जाता। मौसी को अथक परिश्रम करते देखती और उन्हें अपनी इस समाज सेवा पर गर्व भी होता। वे अक्सर कहती भी थीं, कि समाज सेवा के काम में अक्सर आशोभन सुनना पड़ता है, लेकिन धैर्य से सब कुछ करते रहने से ही इस समाज के कमजोर तबके की सेवा कर सकते हैं। उनकी समाज सेवा से जुड़ी अनेक कथाएँ हैं, जो हम महिलाओं को काफी प्रेरित करतीं।

मौसी में हमने काम करने का हुनर भी देखा। महिला काउंसिल के लिए धन जुटाने के लिए किसी के दान में दिए गए कपड़ों को बिचवाना हो या वार्षिक मेला लगाना हो या फिर किसी समृद्ध व्यक्ति से दान प्राप्त करने के लिए उन्हें सहमत करना हो; इन सब कामों में उनकी दिलचस्पी रहती और बहुत कुशलतापूर्वक उन्होंने ऐसे काम किए। उनके रहते कभी धन की कमी न होती। वे हमेशा चौकन्ना भी रहती कि महिला परिषद को कभी अपने किसी काम को धनाभाव में रोकना न पड़े। कितने ही अनाथ या फिर जरूरतमंद कमजोर लोगों की सेवा उनके सद्प्रयासों से हो पाती। मेरी मौसी बिहार महिला परिषद की बहुत वर्षों तक अध्यक्ष भी रहीं। वे जब अध्यक्ष या कोई पदाधिकारी न भी थी, तो हमेशा परिषद की हर संभव मदद करती रहतीं। वास्तव में बड़ा से बड़ा पद भी उनके धारण करने मात्र से सम्मानित होता। होली-दिवाली जैसे किसी भी उत्सव के मौके पर वे बहुत आत्मीयता से पेश आतीं। तब उनका आतिथ्य देखने लायक होता। उनका दालभरी पुरी और आलूदम मशहूर था। अनेक सदस्य उसके आकर्षण से भी खिंची चली आतीं। पटना के संभ्रांत परिवारों की शायद ही कोई महिला हो, जिसे उन्होंने समाज सेवा के काम से न जोड़ रखा हो!

मौसी की मुझ पर विशेष कृपा रहती। एक समय ऐसा भी आया, जब मुझे लंबे समय के लिए विदेश जाना था। मेरे सामने समस्या आ खड़ी हुई कि कुछ दिनों पहले ही मैंने ‘प्रारंभिका’ नाम से जो स्कूल खोला था, उसकी देखभाल कैसे होगी? उसे यों ही छोड़कर तो नहीं जा सकती थी! पर विदेश जाना भी जरूरी था। अपनी समस्या बहुत हिचकते हुए मौसी के सामने रखी, तो उन्होंने सहजतापूर्वक सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर मुझे तनाव मुक्त कर दिया। मैं तो चली गई, पर ध्यान ‘प्रारंभिका’ में ही लगा रहता। आने पर पता चला कि मौसी ने पूरी तल्लीनता से न केवल स्कूल की देखभाल की, बल्कि मोहल्ले के घर-घर से संपर्क कर बच्चों की संख्या में भी काफी इजाफा किया। उन्हें बच्चों से लगाव भी बहुत था। एक-एक बच्चे से जुड़कर उन पर अपना प्यार लुटातीं और अभिभावकों का विश्वास और सम्मान अर्जित करतीं। शिक्षक-कर्मचारियों के प्रति सदय रहतीं, पर अपने कड़े अनुशासन में किसी को जरा भी शिथिल न होने देतीं। दाई-नौकरों तक से हिली-मिली रहतीं। स्कूल के बाहर ठेलेवाले तक उनके प्यार से अभिभूत रहते और उनका बहुत सम्मान करते।

‘प्रारंभिका’ को सही तरह से चलाने-विकसित करने में मैंने मौसी से बहुत कुछ जाना-सीखा। छोटी से छोटी बात पर भी वे सतर्क रहतीं और दूसरों को आवश्यक निर्देश देती। ‘प्रारंभिका’ स्कूल आज पटना में बहुत प्रतिष्ठित विद्यालय माना जाता है, जहाँ पहली कक्षा से इंटर तक की पढ़ाई होती है; पर उस विद्यालय को खड़ा करने का वास्तविक गुर तो मैंने मौसी से ही सीखा। बीते बीस सालों में किसी प्रकार का कोई मनमुटाव नहीं हुआ। कोई तकरार नहीं हुआ। लोगों को इधर-उधर थूकने की आदत थी, पर किसी को भी थूकते देखतीं, तो मौसी फट से टोक देतीं। उनको मैंने हमेशा निडर पाया और हर काम निर्भीकतापूर्वक करती थी। ये गुण उनमें जन्मजात थे। 1999 में वे गंभीर रूप से बीमार पड़ीं और ठीक होने पर क्षीणकाय होने की वजह से विद्यालय को समय न दे पाने की उनकी विवशता हो गई, फिर भी अपने परामर्श से हमें समृद्ध करती रहीं। हमारा-उनका घर आजू-बाजू ही था, सो प्रतिदिन विद्यालय की एक-एक घटनाओं से उनको अवगत कराती रहती। हमारी बातें सुनकर वे हमारा हौसला बढ़ातीं और प्रेरित करतीं कि किसी भी काम को पूरे आत्मविश्वास के साथ करने पर वह अवश्य सफल होता है।

मौसी में एक खास विशेषता थी कि उन्हें कोई भी जरूरतमंद व्यक्ति मिलता, तो वे उनकी पूरी जिम्मेदारी अपने सिर उठा लेतीं। वे सफाई पसंद थीं और हर चीज साफ-सुथरी और साज-शृंगार के साथ रखने में दिलचस्पी रखती। उनका घर साफ रहता, बाग-बगीचे, लॉन सबकी सफाई होती रहती। स्कूल को भी वे अपने घर की तरह ही बिलकुल साफ और शृंगारपूरित रखने पर बल देतीं। समाज सेवा के काम में अक्सर परिवार की उपेक्षा हो जाया करती है। पर मौसी के साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। वे घर-बाहर हर चीज में संतुलन कायम रखती थीं। उनके घर अक्सर कार्यक्रम होते ही रहते। लेखकों का आना-जाना लगा रहता। मौसी आतिथ्य भाव में कोई कमी न आने देती। वह सबके लिए सुलभ रहतीं और उनके सुख-दुःख में सहभागी बनती। मौसी का घर हर पल मुस्कराता-चहकता रहता। मौसी ऊपर से चाहे सख्त और अनुशासनप्रिय हों, अंदर से अत्यंत तरल और करुणा से भरी होतीं। हर किसी के लिए उनमें ममत्व भरा होता।

ममतामयी मौसी मुझे और प्रिय लगने लगी थी, जब मेरी माँ नहीं रहीं। बिहार महिला परिषद भी मौसी के परिवार में वर्षों शामिल रहा। उनकी समाजसेवा से जाने कितने ही लोगों की मदद हुई। मेरी माँ भी समाजसेविका रहीं और जीवनपर्यंत दबे-कुचले समाज की उन्नति के लिए जीती-मरती रहीं। मेरे पिता राजनेता थे। बिहार सरकार में मंत्री भी रहे। उस परिवेश में पली-बढ़ी मेरी जीवनचर्या में समाजसेवा का भाव प्रकृत रूप में रचता-बसता चला गया, लेकिन मेरी कार्यशैली में सबसे ज्यादा प्रभाव मेरी मौसी का ही रहा। अब वे नहीं रहीं, तो उनकी स्मृतियाँ मुझे भाव-विह्वल करती रहती हैं, लेकिन मुझे अपने हर एक काम के लिए प्रेरित भी करती हैं।


Image Source : Personal collections of Pramath Raj Sinha and Family

रंजना चौधरी द्वारा भी