भगत सिंह : भगवती चरण

भगत सिंह : भगवती चरण

हमारे नवयुवक क्रांतिकारियों की कहानी संसार के किसी भी महान् देशभक्त से कम उज्ज्वल नहीं है। इन नवयुवकों की परंपरा ने विदेशीराज के प्रति उस समय विद्रोह की अनबुझ आग सुलगाई और अपनी अपृष्ट अनाहूत बलि दी जब देश के राजनीतिज्ञ एक आँख से सरकार की कृपा की ओर ताकते थे और दूसरी आँख से प्रजा को राजनीति का संकेत करते थे। उस समय राजनीति का अर्थ था घिघियाकर माँगना। भगत सिंह और भगवती चरण ने खुदीराम, यतींद्र, कन्हाई लाल आदि की चिताओं से उठी हुई चिनगारियों से अपने हृदय की विद्रोहाग्नि को मिलाकर उस परंपरा को कायम रखा।

किंतु इससे पूर्व इनका क्या रूप था, क्या सोचते थे, कैसे थे, ये इन्हीं सब कुछ बातों की हल्की याद आज मुझे है।

यह सन् 1921-22 की बात है। मैं उन दिनों नया-नया नेशनल कॉलेज, लाहौर में हिंदी का प्राध्यापक होकर गया था। आचार्य जुगलकिशोर जी प्रिंसिपल थे। रहता मैं था भगवती चरण के मकान में जो मेरे एक निकट संबंधी थे और उन्हीं के कहने से मैं लाहौर गया था। इससे पहले बरेली में तिलक-महाविद्यालय में पढ़ाता था और काँग्रेस में काम करता था। उससे पहले एक तरह से बरेली मेरा कार्यक्षेत्र था। मुझे याद है लाहौर से इलाबाद जाते हुए भगवती चरण ने मुझसे कहा था कि नेशनल कॉलेज में हिंदी का कोई अच्छा अध्यापक नहीं है यदि मैं चाहूँ तो प्रिंसिपल को बड़ी खुशी होगी। इसके बाद नेशनल कॉलेज से मेरे पास इसी संबंध का एक पत्र आया। बरेली से मैं लाहौर चला गया! वैसे लाहौर मैं इससे पहले भी गया था।

मेरे पास एफ.ए. और बी. ए. की श्रेणियाँ थीं । सुखदेव (बाद में प्रसिद्ध क्रांतिकारी) एफ.ए. में पढ़ते थे और यशपाल बी.ए. में। भगत सिंह और भगवती चरण उन दिनों बी.ए. पास करके निकल चुके थे। हिंदी का प्रेम लाहौर में उन दिनों उभर रहा था। विद्यार्थी वर्ग धीरे-धीरे हिंदी की तरफ आ रहा था। भगवती चरण बौहरा इलाहाबाद की तरफ के होने के कारण हिंदी प्रचार और प्रसार के केंद्र थे। लोग शाम को उनके घर आकर जमते और तरह-तरह की साहित्य संबंधी बातें होतीं। मेरे पहुँचने पर जहाँ साहित्य-चर्चा का विशुद्ध विस्तार हुआ, संख्या वृद्धि भी हुई। मैं उन दिनों या तो कविताएँ लिखता था या साहित्य संबंधी गंभीर लेख। ये सब हिंदी के विविध पत्रों में छपते थे। भगवती चरण यही कहकर मेरा परिचय कराते। भगवती चरण निर्भीक, गंभीर तथा स्वतंत्रता-प्रेमी व्यक्ति थे। लाहौर के फोरमेन कॉलेज में पढ़ते हुए ये असहयोग आंदोलन में पिता के बहुत रोकने पर भी कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर नेशनल कॉलेज में दाखिल हो गए। ऊँचा पठानों का-सा कद, अथाह बल, चौड़ा-विशाल मस्तक, मोटी नाक, मर्मभेदी आँखें, मोटे होठ, गोल और चौड़ा मुख, ऊँची गर्दन और चाल में लापरवाही, रँग गेहुँआ, चिंतनशील व्यक्तित्व, साहसिकता यही भगवती चरण की कुछ विशेषताएँ थीं। विरोध सहने और डटकर विरोध करने में इस व्यक्ति को आनंद आता था।

एक दिन की बात है–कई व्यक्ति उनकी बैठक में बैठे बातें कर रहे थे कि अचानक दो साँड़ सामने गली में कहीं से आकर लड़ पड़े। गली के लोग लट्ठ लेकर उनको हटाने के लिए टूट पड़े। पर एक साँड़ गुस्से में भरा हट नहीं रहा था जबकि दूसरा भाग गया! वह साँड़ दूसरे के पीछे भागने ही वाला था कि भगवती चरण ने उसे पूँछ पकड़ कर पीछे की ओर खींचा। साँड़ गुस्से में तो था ही पीछे मुड़कर भगवती चरण पर टूट पड़ा। भगवती चरण ने आव देखा-न-ताव उसे दोनों सींगों को पकड़ कर दीवार में टकरा दिया। बड़ा भयंकर दृश्य था। साँड़ बार-बार आगे बढ़ता पर भगवती चरण उसी वेग में उसे पीछे धकेल देते। हमलोग साँस रोक कर यह दृश्य देख रहे थे। अंत में तीन-चार आदमी चबूतरों पर खड़े होकर साँड़ पर लाठियाँ बरसाने लगे। तब कहीं जाकर वह भागा। भगवती चरण के उस साहस को देखकर लोग मुग्ध थे। मैं तो जैसे सबकुछ भूल गया। (अंत में यही भगवती चरण जब क्रांतिकारी बने तो बम बनाकर लापरवाही से प्रयोग के लिए ले जाते हुए रावी के किनारे उसके द्वारा आहत हुए और शरीर के टुकड़े हो जाने पर भी आध घंटे के लगभग जीवित रहे।)

उन्हीं दिनों शाम की बैठक में खादीधारी लंबा-तड़ंगा एक सिक्ख युवक आया। भगवती चरण ने परिचय कराया पर बातों की गरमा-गरम बहस में वह जहाँ का तहाँ रह गया। मैं उन सबको मामूली विद्यार्थी समझता था और अपने को आचार्य। भगत सिंह के हिंदी-ज्ञान से न तो मैं प्रभावित था न उस समय उनमें कोई खास बात थी। ये सब लड़के असहयोग के कारण कॉलेज की पढ़ाई छोड़ कर नेशनल कॉलेज में दाखिल हुए थे और मैंने जहाँ काशी विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ी थी वहाँ काँग्रेस में काम भी किया था इसलिए उन सब के सामने मेरा नेता बनकर बात करना स्वाभाविक था। फिर मैं अध्यापक; पर धीरे-धीरे बातचीत में एक दिन मुझे मालूम हुआ कि ये विद्यार्थी (भगत सिंह और भगवती चरण) केवल विद्यार्थी ही नहीं कुछ और भी हैं। उनके हृदय में मुझ से ज्यादा देश-प्रेम की आग है। उस समय हम तीन ही थे। भगत सिंह ने कहा–“मुझे विश्वास नहीं होता कि काँग्रेस के किए-धरे कुछ होगा । अँग्रेज तो ऐसे जाने से रहे ।”

“सीधे उँगली कहीं घी निकला है, भगत सिंह। इस सरकार को निकालने के लिए वैसी ही ताक़त की जरूरत है।” भगवती चरण बोले।

“लेकिन हमारे पास और कोई ताक़त भी तो नहीं है। गाँधी जी का मार्ग एकदम अनोखा और नया मार्ग है।” मैंने उत्तर दिया और इसके साथ ही मैंने असहयोग-आंदोलन के देश-व्यापी प्रभाव पर एक लंबा लेक्चर झाड़ डाला। दोनों चुप रहे। अंत में भगत सिंह ने कहा–“मैं इस समय न साहित्य में विश्वास करता हूँ न गाँधीवाद में। मैं तो सरकार को बदलकर देश को पहले स्वतंत्र करने में विश्वास करता हूँ। ऐसा कोई रास्ता ढूँढ़ने की जरूरत है। हमने सरकारी कॉलेज छोड़कर नेशनल कॉलेज में पढ़ा, अब मारे-मारे फिर रहे हैं। क्या करें?”

“आपकी ये बातें ही बता रही हैं कि नेशनल कॉलेज की पढ़ाई व्यर्थ नहीं गई। नहीं तो कौन ऐसा विद्यार्थी है सरकारी कॉलेजों का पढ़ा हुआ, जिसके भीतर देश-प्रेम की इतनी लगन हो ।” मैंने उत्तर दिया ।

बात आई गई हुई। प्राय: हर शाम भगत सिंह आते और गुमसुम बैठ जाते। मालूम होता था जैसे कोई मंथन उनके हृदय में बराबर हो रहा है। हम लोग एक व्यवसायी की तरह इधर-उधर की गप-शप मारते, हा हा-हू हू करते।

एक रोज़ दोपहर को जैसे ही मैं कॉलेज से लौटा तो भगत सिंह अकेले बैठे थे। भगवती चरण भी वहाँ नहीं थे। मेरे पहुँचते ही बोले–“भाई जी, अब हम क्या करें, बताइए न कुछ!” मैंने रोज़ का-सा जवाब दिया–“डेढ़ सौ साल की बीमारी एक दिन में समाप्त नहीं हो सकती। यदि आज काँग्रेस ठंढी-सी दिखाई देती है तो कल फिर मैदान में आकर हमारा मार्ग प्रदर्शन करेगी।”

“आपने सरदार अजीत सिंह का नाम सुना है?”

“हाँ, वे तुम्हारे कौन हैं?”

“चाचा! अभी तक ईरान में हैं।”

उसी समय उनकी आँखें तेज हो उठीं। मुझे लगा जिसको मैं साधारण युवक समझता हूँ वह कोरा युवक ही नहीं है उसके भीतर जैसे एक आग है। सरदार अजीत सिंह को कौन नहीं जानता। लाला लाजपत राय के साथ उन्हें भी देश-निकाला हुआ। यह लड़का उन्हीं का वंशज है। मेरी भावना का रूप एकदम बदल गया। मेरी श्रद्धा उस युवक के प्रति बढ़ गई। मुझे लगा जैसे यह महान् है और मैं देश-प्रेम का ढोंगी व्यक्ति।

मैंने कहा–“तो तुम्हारे जीवन के पीछे तो क्रांति की अनबुझ आग जल रही है भगत सिंह।”

भगत सिंह अपने विचारों में खो गए, और थोड़ी देर बाद उठकर चले गए।

खद्दर का लंबा कोट, चुस्त और अनफिट पाजामा, पेशावरी चप्पल और सिर पर पगड़ी। लंबा-चौड़ा डील-डौल। तेज आँखें, ऊँची और लंबी नाक। ओठों पर यौवन के उभार की रेखाएँ। अदम्य शक्ति के स्रोत उस युवक का गतिविधि मैं सड़क पर जाते देखता रहा और उस समय तक देखता रहा जब तक वह शिव-निवास के सामने की सड़क से ओझल नहीं हो गया।

मैं बैठा ही रहा। सोचता रहा। इसी समय भगवती चरण आ गए। मुझे गुमसुम देखकर बोले–“क्या बात है?”

मैंने कहा, “भगत सिंह आए थे। यह व्यक्ति साधारण नहीं मालूम होता। जीवन के प्रति असंतोष की आग इसमें जल रही है, जैसे कोई बहुत बड़ा काम करना चाहता हो।”

भगवती चरण लाइब्रेरी से लाई हुई किसी इतिहास की पुस्तक के पन्ने उलटने लगे और बोले! “समझ में नहीं आता, क्या किया जाए। मैंने तो सारे संसार का इतिहास पढ़ना शुरू कर दिया है। इसमें मुझे रस भी काफी मिलता है। शायद इसी से हम कोई मार्ग खोज सकें।”

बाद में मुझे मालूम हुआ कि भगत सिंह कानपुर चले गए, गणेश शंकर विद्यार्थी के पास। भगवती चरण को कोई काम तो था नहीं, पिता इतनी संपत्ति छोड़ गए थे कि मजे में बैठकर खा सकें और आराम से रह सकें। दिनभर वे अपने कमरे में बैठे पुस्तकें पढ़ते और प्लान बनाते। कभी वे कोई अखबार निकालने की सोचते और कभी बाहर चले जाते। मैं यथावत् काम करता रहा।

एक दिन शाम को बाहर से लौटकर देखता हूँ कि भगत सिंह तथा कुछ और व्यक्ति अपनी बातचीत में मशगूल हैं। मैं वहाँ से लौट आया। मीटिंग रात के बारह-एक बजे तक चलती रही। रोज़ इसी तरह रात को उन लोगों की मीटिंगें हुआ करतीं। साहित्य-चर्चा और दूसरी बातें बिल्कुल बंद हो गईं । कुछ चुने हुए व्यक्ति भगवती चरण की बैठक में जमा होते और अपनी बातें करते रहते।

अचानक एक दिन शाम को लाहौर के लारेंस-बाग में भगत सिंह से फिर भेंट हो गई। मैंने सहज भाव से पूछा–कहिए आजकल क्या कर रहे हैं?

उन्होंने बात टाल दी और लारेंस गार्डन के अँग्रेजी संबंध की बातें करने लगे। बोले यह बाग तो अँग्रेजों का है ना। हमारे ही देश में हमारे ऊपर रुकावट है। न जाने वह दिन कब आ जाए जब इस मांटगोमरी क्लब में हम लोग बैठ सकेंगे। (असल में लारेंस गार्डन में हिंदुस्तानियों को जाने की इजाजत नहीं थी, प्राय: अँग्रेज लोग ही वहाँ घूमते-फिरते थे । हिंदुस्तानी केवल चिड़िया घर तक जा सकते थे।)

भगत सिंह और मैं दोनों घूमघाम कर लौट आए और वे फिर भगवती चरण के कमरे में चले गए। इस गुप्त सभा में न तो मुझे कभी किसी ने बुलाया और न मैं स्वयं गया।

और भी दो-एक बार भगत सिंह से मुलाकात हुई और मैंने अनुभव किया कि ये लोग किसी गुप्त काम में संलग्न हैं। भगवती चरण भी ऊपरी मन से बातें करते या तो वे अपने कमरे में बैठे रहते या बाहर चले जाते।

एक दिन मेरे कान में भनक पड़ी कि भगवती चरण तथा अन्य व्यक्ति क्रांतिकारी-दल का संगठन कर रहे हैं। मैं उन दिनों गुमानी मिश्र की कृष्णचंद्रिका का संपादन कर रहा था इसलिए कॉलेज से लौटकर उसी काम में लगा रहा। कभी-कभी इनलोगों से भेंट हो जाती तो साधारण बातचीत कर के हमलोग चुप हो जाते। उन्हीं दिनों की बात है भगवती चरण, मैं तथा कुछ अन्य व्यक्ति शालामारबाग देखने गए। दोपहर-भर बाग में घूमने के बाद टहलते हुए हमलोग झुटपुटे में रावी के किनारे पहुँचे और लोग तो लौट ही गए थे। मैं और भगवती चरण रह गए। वे नाव चलाने के शौक़ीन थे। हमने एक नाव ली और धार के ऊपर नाव खेने लगे। लगभग एक मील दूर जाने के बाद नाव रोक ली गई और रेत में उतर गए। दोनों ओर सुनसान था, एकांत चाँदनी रात खिल उठी थी। हम दोनों चुपचाप नदी तट का आनंद ले रह थे। इसी समय भगवती चरण ने कहा–“हमने रास्ता बना लिया है।”

मैंने कोई दिलचस्पी नहीं ली। मैं चुपचाप बैठा रहा। शायद मैं कविता के मूड में आ गया था या कुछ भी नहीं बोला। भगवती चरण ने फिर कहा–“क्रांति के बिना कोई भी देश स्वतंत्र नहीं हुआ। इस देश को स्वतंत्र करने के लिए क्रांति की आवश्यकता है।” और इसके साथ ही उन्होंने काँग्रेस के काम की निंदा की। मैं सदा से काँग्रेस का भक्त रहा हूँ। उसमें मैंने काम भी किया है इसी से एक प्रकार की बहस छिड़ गई। अंत में भगवती चरण के मुँह से निकल गया–“आप देखेंगे स्वतंत्रता हम लेते हैं या काँग्रेस?”

“आप कैसे लेंगे स्वतंत्रत ?”

“देखते जाइए।”

“आखिर हम भी तो जानें।”

“वह समय दूर नहीं है।”

मैं चुपचाप इधर-उधर से सुनी बात को पुष्ट करने की इच्छा से पूछ बैठा–“क्या क्रांतिकारी दल की स्थापना करके।”

“शायद।”

भगवती जहाँ गंभीर थे वहाँ बातूनी भी थे, दृढ़ निश्चयी भी। जल्दबाज भी! जो धुन उन्हें एक बार लग जाए उससे पीछे हटने वाले वे नहीं थे। फिर चाहे जितना कष्ट भी क्यों न आ जाए। यह उनकी धुन की ही बात थी कि सरकारी नौकरी करते हुए पिता की आज्ञा की अवहेलना कर के उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर नेशनल कॉलेज में पढ़ना शुरू कर दिया था। अपने उद्देश्य के प्रेम में ये किसी से अनुचित समझौता नहीं कर सकते थे। इसी से शायद उनके सबसे बड़े साथी और सलाहकार भगत सिंह थे। हमलोग जब लौटे तो भगत सिंह घर पर मौजूद थे।

उस समय भगत सिंह बड़े प्रसन्न थे। इधर-उधर की बातचीत के बाद उन्होंने कहा–“हमको एक नया प्रकाश दिखाई दे रहा है। हमें आशीर्वाद दीजिए।”

मैंने उत्तर दिया–“ईश्वर करे आपका प्रकाश बादलों में न छिप सके।” मुझे निश्चय हो गया ये लोग कुछ बड़ा काम करने जा रहे हैं और वह है क्रांतिदल का निर्माण।

मैंने क्रांति दल का इतिहास पढ़ा था। बंगाल में होने वाले छुट-पुट कामों की बातें भी सुनी थीं और एक बार काशी में ऐसे कुछ लोगों का निमंत्रण भी मुझे मिला पर मैं तर्क की अपेक्षा अपने मन की कमजोरी ही कहूँगा कि उनकी बातों से मैं सहमत नहीं हुआ। वैसे भी यह बात मेरी कभी समझ में नहीं आई कि दो-चार अँग्रेजों को मार देने से स्वराज्य कैसे मिल जाएगा। जब तक एक विस्तृत शक्ति हमारे पास न हो। लड़ने के लिए पूरा सामान न हो और लोगों का पूर्ण सहयोग न हो। शायद यह सब मेरा बहाना था क्योंकि मैं एक छोटा-मोटा लेखक होने के नाते उतना क्रियाशील अपने को नहीं बना पाया जैसे आदमी की इस दल में आवश्यकता होती है।

भगत सिंह मेरे सामने किताब खोलकर पढ़ने कभी नहीं बैठे थे। हमारी निरंतर की गोष्ठी ने उनमें साहित्य-प्रेम, कलाचर्चा और एक विशाल दृष्टिकोण उनको दे दिया था। उन्होंने इसे बातों-बातों में कई बार स्वीकार भी किया। यही कारण है मैंने उनके हृदय में एक आदर का भाव सदा पाया वह शायद इसलिए भी कि मैंने काँग्रेस में जी तोड़कर काम किया था। चौरा-चौरी कांड के साथ ही बरेली में जो काँग्रेस स्वयंसेवकों का एक जलूस निकला था उसका नेतृत्व मैंने किया था। मार भी खाई थी, पकड़ा भी गया था। मेरी डिक्टेटरशिप में पुलिस और सरकार को जो कई बार मुँह की खानी पड़ी यह सब भगत सिंह को भी मालूम था। शायद इसीलिए इस दल के निर्माण से पहले उन्होंने मुझे शामिल करना चाहा। कई बार ऐसे प्रसंग भी उन्होंने उठाए पर मेरी उस ओर उदासीनता देखकर वे लोग चुप हो गए। मुझे याद आ रहा है कि उन दिनों लाहौर के दोनों आर्य-समाजों के वार्षिकोत्सव हो रहे थे। मैं भी उसे देखने चला। अचानक भगत सिंह से भेंट हो गई। हम दोनों साथ-साथ घूमते रहे। गुरुदत्त लाइब्रेरी के सामने बाग में हम दोनों बैठ गए। उस समय मेरी और भगत सिंह की दिल-खोलकर बातें हुईं । मैंने ही स्वयं प्रसंग छेड़ा। उस समय बहुत देर तक उस प्रसंग को टालने के बाद वे खुले। उन्होंने पहले मुझसे प्रतिज्ञा ली फिर बोले–“देखिए भाई जी, हम चुप नहीं बैठे रह सकते। हम तो कुछ न कुछ करने जा रहे हैं।”

“क्या करने?”

“क्रांतिकारीदल का निर्माण।”

मैंने उत्तर दिया–“मैं जानता हूँ ।”

उन्होंने जैसे चौंक कर पूछा–“कैसे, आपको कैसे मालूम हुआ?”

मैं शांति से उत्तर दिया–“आप जो कुछ कर रहे हैं उससे मैं सहमत तो नहीं हूँ पर इतना विश्वास दिलाता हूँ मैं विश्वास-भंग नहीं करूँगा।” इसके साथ ही मैंने बनारस के क्रांतिकारियों की बात उन्हें सुनाई।

उन्होंने कहा–“हम निकम्मे नहीं बैठ सकते। एक तो आजकल काँग्रेस शांत है दूसरे हमें काम भी कोई नहीं है। ऐसी अवस्था में हमें कुछ-न-कुछ करना होगा। मैं तो आपको भी निमंत्रण देता हूँ। यह साहस का काम है। हमारी पार्टी तैयार है। करना या मरना हमारा उद्देश्य है। यह जीवन दासता में बिताना हमें ठीक नहीं लगता।” और भी बहुत-सी बातें उन्होंने कहीं। उनका चेहरा बात करते-करते तमतमा उठा। मुझे लगा जैसे साहस और शक्ति का पुँज यह व्यक्ति चुप बैठनेवाला अवसरवादी नहीं है। सचमुच एक बार मेरे जी में आया कि मैं भी सब कुछ छोड़-छाड़ कर इस दल में सम्मिलित हो जाऊँ। पर न जाने क्यों मैं सहमत नहीं हुआ।

जब दल का निर्माण हो गया तब एक बार मैंने अचानक भगत सिंह से भेंट होने पर कहा–“आप उन लोगों में हैं जो संसार में व्यर्थ अन्न बिगाड़ने नहीं आते। मैं आप लोगों को प्रणाम करता हँ ।” भगत सिंह मुस्कुरा दिए, बोले कुछ भी नहीं। इसके बाद ही शायद उपालमंडी के पास आस्ट्रेलियन बिल्डिंग में डकैती पड़ी और सब लोग छिप गए। फिर मेरी भगत सिंह से तो नहीं, गुप्त रूप से भगवती चरण से एकाध बार भेंट हुई। उस भेंट में उनकी पत्नी दुर्गा (भाभी) का ही हाथ था।

उस युग में, आप, मैं समझता हूँ, कोई भी परमदेशभक्त साहसी युवक वैसा काम करता जैसा भगत सिंह, भगवती चरण, यशपाल ने किया। नेशनल कॉलेज ने, चाहे उसका अस्तित्व आज न हो, भगत सिंह जैसे एकनिष्ठ तपस्वी देशभक्तों को पैदा करके अपना नाम सार्थक किया।

भगत सिंह में सबसे बड़ा गुण यह था कि उनमें न तो प्रांतीयता थी न अपने धर्म के प्रति कट्टरता, वे संपूर्ण भारत को अपना देश मानते थे, और भारतीय मात्र को अपना भाई। हिंदी के प्रति उन्हें सहज स्नेह था और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करते थे। घर में पंजाबी बोलने पर भी उन्होंने हिंदी साहित्य का काफी अध्ययन किया था और उसमें उनका ज्ञान काफी गहरा था। कविता के प्रति उनकी आसक्ति कभी नहीं हुई जबकि भगवती चरण कविता के प्रेमी थे। वे उनके कविता प्रेम की हँसी उड़ाया करते। वे एकमात्र क्रियात्मक जीवन में विश्वास करते थे। सोचकर कर गुज़रना उनके जीवन का लक्ष्य था। अर्थशास्त्र, इतिहास और राजनीति उनके प्रिय विषय थे। क्रांति में उनका धीरे-धीरे विश्वास जमा और वह दृढ़ से दृढ़तर होता गया। क्रांति उनका पैतृक गुण होते हुए भी उन्होंने उसे बिना अच्छी तरह सोचे नहीं अपनाया। शायद यह युवक भी आज पंजाब का एकमात्र नेता होता यदि उस समय की काँग्रेस के सामने सरकारी स्कूल छोड़ देने के बाद इन युवकों के लिए कोई रचनात्मक कार्य होता। किंतु भगत सिंह स्वभाव से ही उग्रदलवादी थे इसलिए एसेंबली में बम फेंककर उन्होंने संपूर्ण राष्ट्र की चेतना को उद्बुद्ध कर दिया।

परम देशभक्तों के इस दल का और इससे पूर्व क्रांतिकारियों के कार्य हमारे स्वराज्य-भवन की नीव में भले ही डूब गए हों किंतु कल के इतिहासकार उन्हें किसी प्रकार भी भुला नहीं सकते। मैं तो वारींद्र, यतींद्र, कन्हाई लाल, शचींद्र, गेंदालाल, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, भगवती चरण, यशपाल, सुखदेव आदि को आज भी युग-निर्माता के रूप में स्वीकार करता हूँ और मानता हूँ इस शृंखला ने हमारी देशभक्ति को अपने रक्त से सींचकर सशक्त कर दिया है। मेरा यह देश धन्य है जिसने इन विभूतियों को उत्पन्न किया। इनको प्रणाम, शतश: प्रणाम।


Image: Bhagat Singh 1929
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