प्रभु जी, तुम अमृत हम मोची

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प्रभु जी, तुम अमृत हम मोची

पटना से करीब चालीस किलोमीटर दूर बिहटा थाना का अमहरा ग्राम स्वाधीनता आंदोलन के समय प्रायः सुर्खियों में रहता था। यह ग्राम सवर्ण बाहुल्य है। राजनीतिक तौर पर यहाँ के लोग समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। देश की आबादी के लिए गाँव के प्रमुख लोग सर्वप्रकारेण समर्पित थे जिनमें रामजी सिंह, श्यामनंदन बाबा, रामनाथ शर्मा आदि अग्रगण्य थे। कहा जाता है कि अगस्त क्रांति के समय इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों ने अँग्रेजों की शस्त्र ले जाती रेलगाड़ी को लूट लिया था और आज भी लूटी हुई बंदूकें आदि यत्र-तत्र खेतों में कहीं गड़ी पड़ी हैं।

इस जागरूक और प्रगतिशील गाँव के बाहर पटना-पालीगंज सड़क के किनारे एक बूढ़ा-सा दिखने वाला आदमी सुबह ही आ जाता है।

बोरा बिछाकर आसन जमाता है और जूता आदि मरम्मत करने के औजार सामने सजा देता है, फिर आने-जाने वालों के उपानह आदि की मरम्मति करता है। उनके जूतों की पॉलिस करके चमकाता है और कहता है, ‘देखिये बाबू, जूते की चमक। इसमें आप अपना मुँह देख सकते हैं।’ उसके परिवार की परवरिश का एकमात्र यही साधन है।

मैं विक्रम प्रखंड का निरीक्षण करने के लिए जा रहा था। गाड़ी रोकी। उतर कर मैंने अपने जूते उसकी ओर बढ़ा दिये। बढ़ा क्या दिया उसने स्वयं जूते मेरे पैर से निकाले और मेरे पैर गंदे न हों, रबड़ की छोटी चटाई आगे बढ़ाकर कहा, ‘बाबू जी इसी पर पैर रख लीजिए।’ वह पॉलिस करने लगा और एक भजन भी गुनगुनाने लगा।

‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी।’

मैंने पूछा, ‘बाबा आपका क्या नाम है?’

‘बाबू, नाम है अमृत। यहाँ के लोग मुझे अमृत मोची कहकर पुकारते हैं। तो यही है मेरा नाम।’ उसने बिना ऊपर मुँह किये उत्तर दिया।

‘अभी आप एक भजन गुनगुना रहे थे। वह किसका भजन है।’ मैंने पूछा।

‘बाबू हम पढ़े-लिखे तो हैं नहीं। यह भजन मैंने अपने बड़ों से सुनते-सुनते याद कर लिया। उनलोगों ने ही बताया था कि यह भजन हमारे गुरु रैदास चमार का है। हम लोग उन्हीं की परंपरा से जुड़े शिष्यों के शिष्य है। बाबू आप यह सब क्यों जानना चाहते हैं?’ अमृत ने अपनी उत्सुकता प्रदर्शित की।

‘कुछ नहीं बाबा। यह भजन बहुत अच्छा लगा। आपका गुनगुनाना और भी अच्छा लगा।’ मैंने कहा।

‘लीजिए बाबू साहब, आपका जूता चमक गया।’ यह कहकर उसने एक-एक कर दोनों जूतों को मेरे पाँवों में सजा दिये।

‘यह लो बाबा अपना मेहनताना।’ मैंने पाँच रुपये का नोट उसके हाथों में पकड़ा दिया। उसने कहा, ‘बाबू साहब आप तो कोई बड़े साहब लगते हैं। आप से पॉलिस का पैसा कैसे लेंगे।’

‘नहीं बाबा, यह तो आपके परिश्रम की कमाई है। रख लीजिए।’

‘मेरा मेहनताना तो केवल आठ आना होता है। अभी तो बोहनी का समय है। मेरे पास पाँच रुपया तोड़ने का पैसा नहीं है। देना ही है तो छुट्टा आठ आना दे दीजिए।’

‘कोई बात नहीं बाबा, आप पूरा रख लीजिए। फिर कभी पॉलिस करा लेंगे।’ यह कहते-कहते मैं जीप में बैठ गया।

शाम को विक्रम-पालीगंज से लौट रहा था। अमृत गाड़ी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। वह बोला, ‘हुजूर हमसे गलती हो गई। क्षमा करें। मालूम हुआ कि हुजूर हमारे यहाँ के एस.डी.ओ. साहब हैं। साहेब, पैसा वापस ले लीजिए।’

‘नहीं अमृत, यह तो आपके परिश्रम का मेहनताना है। आपको और किसी प्रकार की मदद चाहिए तो बेफिक्र मिलिएगा।’

उसने मेरा पैर पकड़ लिया। मैंने अपना पैर छुड़ाते हुए कहा ‘अरे बाबा आपका नाम अमृत है। आपको पैर नहीं पकड़ना चाहिए।’ यह कहते-कहते मैंने चालक को गाड़ी बढ़ाने का आदेश दिया।

दानापुर से मेरा स्थानांतरण हो गया। अमहरा गाँव जाने का अब कोई सवाल नहीं था। साल दर साल बीतते गए। बिहार के विभिन्न जनपदों से होता हुआ कई सालों के पश्चात् पटना सचिवालय में नियुक्त हुआ।

एक दिन कार्यालय में बैठा था। चपरासी ने आकर कहा, ‘हुजूर एक लड़का आप से मिलना चाहता है।’

‘भेजो’ मैंने कहा।

दुबला-पतला और स्मार्ट-सा लड़का मेरे सामने था। मैंने बैठने का इशारा किया। सकुचाते हुए वह कुर्सी पर बैठ गया और बोला, ‘सर, मेरा नाम अमित्रजित है। मैं अमहरा गाँव से आया हूँ। आप जब दानापुर में एस.डी.ओ. थे तब हमारे गाँव आते थे। तब मैं स्कूल में पढ़ता था।’

‘बोलो क्या काम है।’ मैंने पूछा।

‘सर, काम तो कोई विशेष नहीं है। आपका दर्शन करना चाहता था। हमलोगों ने अपने गाँव में ‘शांति स्थापना संघ’ संस्था स्थापित किया है। गाँववालों का निवेदन है कि यह संस्था आप के संरक्षकत्व में काम करें। यह साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था है, जिसका मुख्य काम है, क्षेत्र में भाई-चारा बढ़ाना, अविश्वास को भगाना, हर वर्ण-जाति के लोगों को एक मंच पर लाकर शांति स्थापित करना।’

‘इसमें मेरा क्या काम होगा। आपलोग अच्छा काम कर रहे हैं, यह खुशी की बात है। मैं तो सरकारी सेवा में हूँ। हमारी कुछ वंदिशें हैं।’ मैंने उसे समझाया।

‘सर, आपका नाम जुड़ने से इस संस्था का विकास होगा। यह गैर-राजनीतिक है। आपका नाम ही हमारे लिए काफी है।’

अमित्रजित की बातों को मैंने ध्यानपूर्वक सुना। मन में सोचा कि अमहरा गाँव से संपर्क का यह एक अच्छा बहाना होगा। मैंने मुखर होते हुए कहा, ‘अमहरा गाँव में एक अमृत मोची नाम का चर्मकार था वह है या…?’

‘वह है सर। उसी ने तो बताया था कि आप संवेदनशील और दयालु हैं। इसीलिए गाँववालों ने हमें आपके पास भेजा है।’

‘ठीक है अमित्रजित! तुमलोग संस्था को आगे बढ़ाओ। मैं यथोचित मदद करूँगा।’

‘शांति स्थापना संघ’ संस्था का एक काम था, हर साल नक्सल प्रभावित देहात में रामायण महोत्सव का आयोजन करना। इस महोत्सव में आस-पास के प्रखंडों की आठ-दस कीर्तन मंडलियाँ सक्रिय भाग लेती थीं। ये कीर्तन मंडलियाँ साल भर अपने गाँव के मंदिर परिसर में शाम को देर तक कीर्तन भजन गाती थी। रामायण महोत्सव में सहभागी होने के लिए विशेष तैयारी करती थी। यह महोत्सव प्रायः दो दिनों का होता था। सभी सहभागियों के रहने-खाने आदि का प्रबंध ग्रामीणों की मदद से ‘शांति स्थापना संघ’ द्वारा किया जाता था। इन मंडलियों में हर वर्ग जाति के गायक-वादक रहते थे। वे दो दिनों तक बिना किसी भेदभाव के एक साथ रहते, खाते और भजन करते थे। अस्पृश्यता नाम की चीज नहीं थी। भगवान के दरबार में भेदभाव कैसा।

यह महोत्सव रात्रि भर चलता। हर गाँव के बूढ़े-जवान-बच्चे इसमें भाग लेते। रात्रि भर लोगों का आना-जाना लगा रहता था। नक्सल प्रभावित गाँवों के लोगों से दूर रहना ही अच्छा है। नक्सली लोग खेतीहर जमींदारों से दूरी बनाए रखते और शोषणकर्ताओं के विरुद्ध एकजुट होकर कार्रवाई करते थे। इस समारोह में दोनों वर्ग जमींदार और नक्सल भाग लेते और आपस में वैमनस्य और अविश्वास स्वतः समाप्त हो जाता था। जिन-जिन गाँवों में हमने रामायण महोत्सव किया था वहाँ से नक्सल समस्या समापत हो गई थी। लोगों में विश्वास का वातावरण बनने लगा। इस दृष्टि से रामायण महोत्सव लोकप्रिय हो गया था।

इस बार यह महोत्सव अमहरा गाँव के राजेंद्र पुस्तकालय के परिसर में आयोजित था। मैं पटना से दूसरे दिन वहाँ पहुँचा। अमहरा गाँव से कई प्रतिभाशाली डॉक्टर, अधिकारी और राजनीतिज्ञ लोग हो चुके हैं, फिर भी मुझे शिकायत मिलती कि अमहरा गाँव में अस्पृश्यता अभी भी व्यवहार में है। मुझे आश्चर्य लगा कि जिस गाँव में समाजवादी विचार के लोग रहते हैं, जहाँ के लोग महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भाग लिये, वहाँ पर स्वतंत्रता मिलने के बाद भी अस्पृश्यता जैसा भूत अभी भी विद्यमान है। मैंने वहाँ जाने के पूर्व मन बना लिया था कि इस बार इस कोढ़ को मिटाने के लिए स्थानीय लोगों से बात करूँगा।

रामायण महोत्सव में भाग लेने वाली मंडलियों में प्रथम स्थान पाने वाली मंडली को विशेष रूप से सम्मानित किया जाता था। इनाम स्वरूप कभी ढोल दिया जाता, कभी हारमोनियम। अन्य मंडलियों को और उनके सदस्यों को भी सम्मानित किया जाता था। इस सम्मान समारोह में अमित्रजित के नायकत्व में गाँव के नवयुवक राजन और संदेश आदि की प्रशंसनीय सहभागिता होती थी। इस बार हमलोग ने मन बनाया कि गाँव के किसी बुजुर्ग एवं संभ्रांत दलित को सम्मानित किया जाय।

गाँव में मैं करीब चार बजे सायं पहुँच गया। पटना से डॉ. कुणाल कुमार भी साथ गये। कुणाल जी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार और प्रवचनकर्ता हैं। मैंने अमहरा गाँव के संभ्रांत व्यक्तित्व वाले दिवाकर शर्मा, आदि से विमर्श किया। मैंने पूछा कि इस गाँव के सड़क किनारे अमृत मोची नाम का एक चर्मकार बैठा करता था। वह क्या अभी भी है? श्री रामनाथ ने बताया, ‘जी सर, वह वृद्ध हो गया परंतु अभी भी सुबह से शाम तक वहीं बैठता है और रविदास के भजन गाते रहता है।’

मैंने कहा, ‘क्यों नहीं, इस बार इस पवित्र समारोह में उसे सम्मानित किया जाय।’ सबों ने मेरे प्रस्ताव का समर्थन किया। उनलोग का समाजवादी सिद्धांत पुनर्जागृत होने लगा। सम्मान समारोह प्रारंभ हुआ। अमित्रजित को निर्देश दिया गया कि वे जाकर अमृत मोची को ससम्मान आमंत्रित कर समारोह में लाएँ। अमित्रजित अपने सहयोगियों के साथ अमृत को लाने के लिए चला गया। सम्मान समारोह में कीर्तन का अंतिम दौर चलता रहा।

अमित्रजित ने अमृत को ससम्मान आमंत्रित किया और अनुरोध किया कि उन्हें सम्मान समारोह में बुलाया गया है। अमृत ने घबड़ाहट भरे स्वर में कहा, ‘बाबू हमने तो कोई गलती नहीं की है। हमें क्यों बुलाया गया है? अगर कोई गलती हो गई हो, तो क्षमा किया जाय।’

‘गलती की बात नहीं है। पटना से साहब आए हैं। वही बुला रहे हैं।’ अमित्रजित ने समाझाया।

‘पटना से कौन साहब…’ कहता हुआ आकाश की ओर देखने लगा, मानो अपने गुरु को स्मरण कर रहा हो।

‘अरे वही साहब तो दानापुर में एस.डी.ओ. थे और आपने उनके जूते का पॉलिस किया था। अब वे बहुत बड़े अधिकारी हो गये हैं।’ अमित्रजित ने उन्हें सांत्वना और साहस दिलाते हुए कहा।

‘बाबू, आप तो देख ही रहे हैं। मैं सड़क किनारे दिनभर बैठकर जूतों की मरम्मत करता हूँ, पॉलिस करता हूँ। मेरे कपड़े गंदे हैं। साहब लोगों के बीच मैं कैसे जा सकता हूँ।’

‘आप कपड़ों की चिंता नहीं कीजिए। आप हमारे गाँव के बुजुर्ग हैं, अतः आज के महोत्सव में आपका रहना आवश्यक है। साहब आपके बारे में स्वयं पूछताछ कर रहे थे। चलिए, वहाँ पर आपका इंतजार हो रहा है।’

‘जैसा हुकूम बाबू।’ अमृत ने अपना सामान एकत्र किया। रास्ते में एक मकान में रख दिया और महोत्सव में पहुँच कर साष्टांग प्रणाम किया और कहा, ‘बाबू साहब लोग, हमसे कोई गलती हुई हो तो क्षमा कर दीजिए।’

मैंने बहुत बड़े अंतराल पर अमृत को देखा था। वह बूढ़ा हो गया। कमर टेढ़ी हो गई थी, शायद दिनभर बैठे रहने के कारण। मैंने कहा, ‘अमृत जी बैठिए’ वह जमीन पर बैठ गया। मैंने अनुरोध किया, ‘जमीन पर नहीं, कुर्सी पर बैठिये।’ उन्होंने हाथ जोड़ कर कहा, ‘मैं अपने गाँव के बाबू साहब लोग के सामने कुर्सी पर नहीं बैठ सकता हुजूर और फिर ये मेरे मैले-कुचैले कपड़े भी हैं।’

‘कपड़ा की चिंता नहीं कीजिए, वह नये-पुराने, गंदे कपड़े साफ होते रहते हैं। उठिये कुर्सी पर आसन ग्रहण कीजिए।’ मैंने अनुरोध किया।

गाँव के सवर्ण बुजुर्गों ने भी अमृत से अनुरोध किया कि ‘साहब की बात मान जाइये। आइये कुर्सी पर बैठ जाइए।’ अमित्रजित ने सहारा दिया और उन्हें गाँव के दो सवर्ण बुजुर्ग के बीच की रिक्त कुर्सी पर बिठा दिया। वह सहमा-सहमा कुर्सी पर बैठ गया।

मैंने सभा को संबोधित किया और सफेद अंगवस्त्र से अमृत को ओढ़ा दिया। उसके बाद गाँव के एक सवर्ण संभ्रांत वृद्ध ने उनकी ग्रीवा को गेंदा के फूलों के हार से सजा दिया। तदन्तर शांति स्थापित संघ के सदस्यों ने भी फूल माला पहनाया।

गाँव के ही एक बुजुर्ग ने कहा, ‘साहब अमृत एक उच्च कोटि के भजनी भी हैं। सड़क किनारे बैठ कर गाते रहते हैं। इनसे अनुरोध किया जाय कि एक भजन सुना दें।’

‘अमृत जी आप अपने गाँव के लोगों के अनुरोध को स्वीकार कीजिए और एक भजन सुना दीजिए।’ मैंने अमृत से अनुरोध किया।

‘हुजूर आपलोग के सामने मेरी आवाज कैसे निकल सकती है। कभी-कभी अकेले में अपने सुख के लिए गुनगुना लेता हूँ।’

‘यहाँ पर भी आप स्वांत:सुखाय वही भजन सुना दीजिए जो हमारी पहली मुलाकात में आप गुनगुना रहे थे। क्या था–‘प्रभुजी तुम चंदन।’

‘पंचों का आदेश सिर आँखों पर।’ अमृत ने आँखें बंद कर ली और गाने लगा…कहकर

‘प्रभुजी तुम चंदन हम पानी

जाकी अंग-अंग बास समानी,

प्रभुजी तुम घन, बन हम मोरा,

जैसे चितवत् चंद्र चकोरा।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती,

जाकी जोति बरै दिन-राती।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा,

जैसे सोनेहि मिलत सुहागा।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा,

ऐसी भक्ति करे रैदासा’

(प्रभु जी, तुम अमृत मैं मोची) अपनी ओर से मैंने जोड़ दिया।

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।’

रैदास के इस भजन को गाते हुए अमृत झूमने लगे। सभी श्रोता लोग भी झूम गये। उनकी वाणी से संगीत बिखर रहा था। कीर्तन मंडली के लोग उनके राग में राग मिलाने लगे और कीर्तनियों की उँगलियाँ स्वतः ढोलक और हारमोनियम में संगीत पैदा करने लगी। पूरा वातावरण बदल गया। रैदासमय हो गया। संगीतमय हो गया। सबों ने एक बार में अमृत को ‘वाह-वाह’ से नहला दिया। अमृत किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा अर्धविक्षिप्त हो गया। उसने हाथ जोड़कर सबका अभिनंदन किया और कहा ‘सब गुरु महाराज की कृपा का फल है।’ उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। सम्मान समारोह समाप्त हुआ।

सब कब बीत गया। पता नहीं चला। दूसरे साल रामायण महोत्सव का सम्मान समारोह देहात के दूसरे गाँव के शिव मंदिर परिसर में आयोजित किया गया। यह गाँव भी नक्सल प्रभावित था। जाड़े के दिन थे। कुहरा छाया था। मुझे दिल्ली से आने में विलंब हो गया। राजधानी एक्सप्रेस बारह घंटे विलंब से पटना आयी। घर पहुँचे तो ज्ञात हुआ कि रामायण महोत्सव से बार-बार फोन आ रहा है। लोग आपका इंतजार कर रहे हैं। मैं थका था। फिर भी महोत्सव में भाग लेने के लिए चल पड़ा। रात में करीब नौ बजे पहुँचे। शिव मंदिर का परिसर आस-पास के गाँवों के लोगों से भरा पड़ा था। सामने की सीट पर अमृत मोची बैठा था। स्वच्छ वस्त्रों में। निःसंकोच, निर्भय आत्मसम्मान से लबालब।

मैंने लोगों को संबोधित करने के पूर्व कीर्तन मंडली के सदस्यों को सम्मानित किया। मैंने कहा कि आज के बाद भी यदि इस क्षेत्र में नक्सल समस्या रही तो ऐसे महोत्सव का कोई लाभ नहीं।

अमृत खड़ा हो गया। बोला, ‘अब यहाँ पर नक्सल समस्या नहीं है हुजूर। देखिये हर गाँव के अमीर-गरीब यहाँ पर आए हैं। रात्रि का समय। लोग अपने-अपने घर जायेंगे। नक्सली क्षेत्र में जहाँ लोग नक्सलियों के डर से शाम पाँच बजे के बाद घर से नहीं निकलते थे, वहीं यहाँ तो सभी निडर आ-जा रहे हैं। वातावरण बदलिये। सोच बदल जाएगी। विश्वास वापस आ जाएगा। हमारी सोच, विश्वास और ऊँच-नीच के स्तर को मिटाने का कार्य आपने किया है। नया वातावरण गाँव-गाँव फैल रहा है। अविश्वास समाप्त हो रहा है।’

अमृत के सम्मान ने दलित नवयुवकों में विश्वास की किरण जगा दी है। सवर्णों की भी सोच बदली है। रामायण महोत्सव ने शांति का संदेश दिया है। लोगों में आपसी भाईचारे का संबंध वापस आ रहा है।