भारत का छकड़ा
- 1 October, 1950
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 October, 1950
भारत का छकड़ा
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की स्मृति में
हिंदी में जब ‘प्रगति’ के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है और लोग इसके पीछे न जाने किस-किस की गति बना रहे हैं, तब यहाँ इस क्षेत्र में भी ‘भारतेंदु’ का कुछ करतब देख लेना चाहिए। संभव है प्रगति के लोग भी इससे कुछ सीखें और दूसरे लोग भी जान लें कि वास्तव में कविता का क्षेत्र कितना व्यापक है। भारतेंदु के जीवन को सब के सामने लाने वाले व्यक्तियों में बाबू शिवनंदन सहाय जी मुख्य हैं। उनकी जीवनी और आलोचना लिख कर उन्होंने हिंदी का बड़ा हित किया है। उन्हीं का कहना है–
“1882 ई. के मार्गशीर्ष में वे मेवाड़ गए थे जिस यात्रा का वर्णन इन्होंने बहुत लंबा-चौड़ा लिखा है। काठेमाठे (पत्थर-ढेले), पहाड़, राज्य की चौकी, चौकी पर का कर, और ठगी–यही मेवाड़ का पाँचरत्न बतलाया है। वहाँ इनको बैलगाड़ी पर जाना पड़ा था, इनका गणेश नाम का गाड़ीवान एक खिन्न शरीर, धनहीन, बुद्धिहीन मनुष्य था। यह विचार कर कि गणेश जी को विद्या, मुटाई, ऋद्धि, सिद्धि, सब कुछ; और उसमें तीनों नदारद–हमारे चरित्रनायक ने उसपर यह दोहा बनाया था–
नहि विद्या, नहि बाहु बल,
नहि खरचन को दाम।
श्री गणेश बिनु शुंड के,
तिनको कोटि प्रणाम॥
(सचित्र हरिश्चंद्र, पृ. 50 खंगविलास प्रेस, 1932 ई.)
भारतेंदु का ध्यान गणेश की दीन दशा पर तो गया, पर उससे उन्हें रोना न आया वरन उनका ध्यान ऋद्धि-सिद्धि के दाता श्री गणेशजी पर गया और उन्हें विनोद की सूझी। झट एक दोहा भी बन गया। किंतु क्या इस दोहे के भीतर कोई मार्मिक वेदना नहीं है? ‘कोटि प्रणाम’ का भाव क्या? इतना ही नहीं, इसी के साथ गाड़ी का भी रूप देख लीजिए–उससे संभव है कालगति दृष्टि में आवे। लिखते हैं–
“हिलत डुलत चलत गाड़ी आवै।
झुलत सिर टुटत रीढ़ कमर झोंका खाव।
टख टख टिख हचर मचर शिप धस चें,
चूं टं टिन टिन हड़ड़ हड़ड़ धड़ धिड़ धिड़ावै
चल चल कहै गाड़ीवान चाबुक हते पोंछ एठ,
भारत सम बैल तऊ तनिक नहिं धावै।
छोड़त नहीं कबहुँ लीक भार बहुत दुखहि सहत,
केवल भूस खाई तुष्टधर्मा तऊ कहावै।
कंटक पग सीस धूप ऊँच-नीच ठोकर गरद,
सड़क सतत धड़क सहित पंथ न लखावै।
थकित पथिक सुपंथ-रसिक बंद बंद चूर चूर,
एक कोस चल्यो मनहु सहस कोस धावै।
गड़बड़ भयो उदर नीर लुंज चरन जोड़ सिथिल,
सोवत बने न बैठि जाई पिडुई झुन-झुनावै!
चौकीदार ठग यार करहुं लेत दुखहुं देत,
सब सों बढ़ि मिलै न अन्न छुधा अति सतावै॥”
(वही पृष्ठ-50)
भारतेंदु जी ने इसमें क्या कुछ कहा है, इसे हम अपनी ओर से क्यों कहें? लीजिए उसी चरित लेखक का कहना है कदाचित सन 1904 वा 5 का, क्योंकि सन 1905 में प्रथम प्रकाशन उक्त ग्रंथ का हुआ था। कहते हैं–
“गाड़ी की व्यंग-स्तुति केवल लोगों के हँसाने ही के लिए नहीं है। इससे बाबू साहब का कुछ और भी अभिप्राय था और उन्होंने लिखा भी है–‘बस भारतवर्ष की उन्नति की गाड़ी की चाल का नमूना समझो।”
श्री शिवनंदन सहायजी ने भारतेंदु जी की बात लिख दी और आपने देख लिया कि वास्तव में कवि की गाड़ी क्या है। ‘भारत सम बैल तऊ तनिक नहिं धावै’ में है न भारत का प्रत्यक्ष उल्लेख? ‘छोड़त नहिं कबहुँ लीक’ में भी तो किसी ‘लीक’ का संकेत किया गया है? और ‘केवल भूस खाई तुष्टधर्मा तऊ कहावै’ का कहना ही क्या? भूसा भी भरपेट मिले तो? तात्पर्य यह है कि भारतेंदु की दृष्टि ‘मेवाड़’ की ‘बैलगाड़ी’ पर नहीं, वस्तुत: ‘भारत’ की प्रगति पर है। ‘सब सों बढ़ि मिलै न अन्न छुधा अति सतावै’ को तो आप भी भलीभाँति समझ सकते हैं और चाहें तो उस समय के मेवाड़ की भाँति अपनी स्वतंत्रता का अभिमान भी कर सकते हैं। हमें उससे कुछ लेना-देना नहीं, पर कलम के धारियों से इतना कहना अवश्य है कि भारतेंदु की दृष्टि में ‘गाड़ीवान’ और ‘बैल’ ही नहीं, अपितु ‘पथिक’ भी है। उसकी दुर्दशा पर भी ध्यान दें और उसकी व्यथा को भी समझें। भारतेंदु की जयंती के इस शुभ अवसर पर हमें ‘श्री गणेश’ का ध्यान धरकर चुप नहीं रह जाना है और न भारत के छकड़े को यों ही छोड़ देना है। हाँ, प्रगति के विचार से ‘लीक’ छुड़ाने की उमंग में उसकी ‘गाड़ी’ को पटरी से उतार भी नहीं देना है। अन्यथा धड़-धड़ाम!